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________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ : - (आणि) आशुनि - घृतपानादिना शरीरस्थौलीकरणम्, तथा( अक्खिरागं) अक्षिरञ्जम् - नेत्ररञ्जनम् ( गिधुवघायकम् ) गृद्धयुपधातकर्मकम् वृद्धि गद्धि - गृद्धिभावकरणम् उपघातकर्म - उपकार किया (उच्छोलणं च) उच्छीलंच - अयत्नतः उदकेन पुनः पुनः हस्तपादपक्षालनम् (कर्क) कल्कं च लोधादि द्रव्येण शरीरस्योद्वर्तनकरणम् (तं) तदेतत्सर्वम् (विज्ज) विद्वान् (परिजाणिया ) परिजानीयात्- ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यजेदिति ||१५|| टीका- 'आणि' आशूनि घृतपानादिना मकरध्वजादिरसायनिकौषधिविशेषेण च शारीरिकबल संवर्द्धनम्, 'अक्खिरागं' अक्षिरागम् अक्ष्णोः रागम्अञ्जन लगाना 'गिद्धुवाघायकम्मर्ग-गृद्धयुपघातकर्मकम्' तथा शब्दादि विषयों में आसक्त होना, एवं जिस कर्म से जीव का घात होता है उसे करना 'उच्छोलणं च - उच्छोलनंच' अयत्न पूर्वक ठंडा पानीसे हस्तपाद आदि का बार बार धोना तथा 'व-कल्कम्' हल्दी आदि से शरीर में पीठी लगाना 'तं विज्जं परिजाणिया- तत् विद्वान् परिजानीयात्' इन सभीको विद्वान् मुनि ज्ञपरिज्ञासे संसार भ्रमणका कारणरूप समझ कर प्रत्याख्यान परिज्ञासे उस का त्याग करें ॥१५॥ अन्वयार्थ -- घृतपान आदि करके शरीर को स्थूल बनाना, नेत्रोंको रंगना, गृद्धिभाव करना, अपकार करना, बारबार हाथ पांव धोना, शरीर का उबटन करना इन सब को मेधावी पुरुष ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग दे || १५ || टीकार्थ-- घृतपान आदि करके तथा कस्तूरी मकरध्वज आदि रासाiv. गिधुवघायकम्मगं गृद्धयुपधातकर्मकम्' तथा शहाहि વિષયામાં ग्यास तथा उर्भथी भवनो धात थाय तेवु उर्भ ४२. 'उच्छोलणं च - उच्छोलन च' यत्न विना ठंडा पालीथी हाथ, पत्र, विगेरे घोषा तथा 'कक्क - कल्कम् ' सहर विगेरेथी शरीरमां थीठी योजवी-सगाववी 'तं विज्ज' परिजाणिया- तत् विद्वान् परिजानीयात्' मा अधाने विद्वान भुनि ज्ञ परिज्ञाथी સ ંસાર ભ્રમણના કારણરૂપ સમજીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેનેા ત્યાગ કરે ॥૧૫॥ અન્નયા ——ધૃતપાન વિગેરે કરીને શરીરને સ્થૂળ બનાવવું. આંખાને રંગવી. शृद्धि भाव (मासहित) राजवी वारवार हाथ पग धोवा, शरीरने शत्रुभारवु આ બધાને ડાહ્યો પુરૂષ ન પરિણાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેના ત્યાગ કરે ૫ પા ટીકા”—ધૃતપાન વિગેરે કરીને તથા કસ્તુરી, મકરધ્વજ વિગેરે રસાયનિક શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૩ ३४ •
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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