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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम्
४१९ मूलम्-वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा,
____ मैग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तेणी वि मज्झं इणमेव सेयं,
जं 'मे बुंहा सैमणुसासयंति ॥१०॥ छाया-वने मूहस्य यथाऽमूढा, मार्गमनुशासति हितं मजानाम् ।
तेनापि मह्यमिदमेव श्रेयो, यन्मे बुधाः सम्यगनुशासति ॥१०॥ 'वणंसि मूढस्स जहा' इत्यादि
शब्दार्थ-'जहा-यथा' जिस प्रकार से 'अमूढा-अमूढा' सदसन्मार्ग को जानने वाले पुरुष 'वणे-वने' वनमें 'मूढस्स- मूढस्य' भ्रमित दिशा होने से मार्ग से स्खलित पुरुषको 'पयाण-प्रजानाम्' प्रजा के 'हियं-हितम्' हितकरने वाला 'मग्ग-मार्गम्' मार्गको 'अणुसासंतिअनुशासति' कह देते हैं वैसे ही 'तेणावि-तेनाऽपि' साधु को भी यही विचारना योग्य है की 'मज्झ-मह्यम्' मुझको 'इणमेव सेयं-इदमेव श्रेयः' यही कल्याणकारी है 'ज-यत्' जो 'मे-मम' मुझको 'बुट्टावृद्धा' य बाल वृद्ध गृहस्थ विगैरह 'समणुसासयंति-सम्यक अनुशासति' शिक्षा देते हैं अर्थात् ये सब जो मुझे शिक्षा वचन कह रहे हैं वे मेरे लिए हितकर है ऐसा विचार करके किसीके उपर क्रोध न करे ॥१०॥
'वर्णसि मूढस्त जहा' या
शाय-'जहा-यथा' रे प्रमाणे 'अमूढर-अमूढाः' सभागने ongवावा! ५३५ 'वणे-वने' पनमा ‘मूढस्स- मूढस्य' शिनो श्रम थपाथी भाग या भूदा ५३६॥ ५३पने ‘पयाण-प्रजानाम्' प्रona :हियं-हितम्' हित ४२११! 'मग्ग-मार्गम्' भागने 'अणुसासंति-अनुशासति' शिक्षा मा छे. मे शते 'तेण वि-तेनापि' साधुसे पा४ मे पिया२यु योय छे ?-'मझमह्यम्' भने 'इणमेव सेय-इदमेव श्रेयः' मा ४८या ४१२४ छ. 'ज-यत्' । 'मे-मम' भने वुड्ढा-वृद्धाः' मा मात, वृद्ध, ६२५ विगैरे 'समणुसासयतिसम्यक् अनुशासति' शिक्षा मापे छे. अर्थात् सा मा भने ने शिक्षा पयन કહી રહ્યા છે એ મારે માટે જ હિતકારક છે. એમ વિચાર કરીને તેના પર ક્રોધ ન કરે ૧ળા
श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3