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________________ ४१० सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:-(डहरेण) दहरेण स्वापेक्षया वयसा कनिष्ठेन बालेन 'बुड्ढेण' वृद्धेन-चयोऽधिकेन एवम् (राइगिएणावि) रानि केन-रत्नाधिकेनापि दीक्षापर्वायज्येष्ठेन (समन्वएणं) समव्रतेन अनुशासितस्तु प्रमादस्खलितचरणं प्रति प्रेरितः सन् प्रतिबोधितोऽपि (सम्मंतयं) सम्यक्तया 'थिरतो' स्थिरत:-संयमपरिपालनस्थैर्येण (णाभिगच्छे) नामिगच्छन् तदुपदेशं न स्वीकरोति पुनः प्रमादस्खलितचरणं करोति, तदा (से) सः प्रमादस्खलनकर्ता साधु. (णिज्जंतए वावि) नीयमानोवाऽपि मोक्षमार्ग प्रति प्रेयमाणोऽपि तदकरणतया सः (अपारए) अपा. रगः-न संसारसागरपारगो भवति ॥७॥ स्थिरतः' संयम के परिपालन में स्थिरताको 'णाभिगच्छे-नाभिगच्छेत्' उसके उपदेशको स्वीकार नहीं करता है और बारचार प्रमाद करता रहे तब 'से-सः' प्रमाद करने वाला साधु 'णिज्जतिएवावि-नीयमान एव' संसार समुद्र में ले जानेवाले होते हैं 'अपारए-आपरग' संसार सागर से पार करने वाले नहीं होते हैं ॥७॥ अन्वयार्थ-दहर अर्थात् उमर में अपने से छोटी उमरवाला साधु से या वयोऽधिक वृद्ध साधु से एवं दीक्षापर्याय में अपने से बडे साधु सें अथवा दीक्षापर्याय श्रुत या वय में अपने से तुल्य साधु से प्रमाद स्खलनाचरण के विषय में समझाए जाने पर जो साधु क्रोधादिके वशीभूत होकर संयम का परिपालन नहीं करता है, फिर से प्रमाद स्वलन और गलती करता ही रहता है, वह प्रमाद गल्ता करने वाला साधु इस संसार समुद्र के प्रवाह में वहता हुआ संसार सागर का पारगामी नहीं होता है ॥७॥ स्थिरता ३५ ‘णाभिगच्छे-नाभिगच्छेत्' तेना उपदेशन वीरता नथी. मने वारंवार प्रभा ४२ता २९ त्यारे 'से-सः' ने प्रमा ३२वावा। साधु 'णिज्जंतएवावि-नीयमान एव' संसार समुद्रमा स वापाण। थाय छ. अपारए-अपारगः' ससार सागरथी पा२ ४२वावाणी थता नथी. ॥७॥ અન્વયાર્થ–ડહર અર્થાત્ ઉમરમાં પિતાનાથી નાની ઉમરવાળા બાલ સાધુથી અથવા વયેવૃદ્ધ સાધુથી તથા દીક્ષા પર્યાયમાં પિતાનાથી મોટા સાધુ પાસેથી અથવા દીક્ષા પર્યાય શ્રત અથવા વયમાં પિતાની બરોબર એવા સાધુ દ્વારા પ્રમાદ, ખલનાચરણના સંબંધમાં સમજાવવામાં આવેથી જે સાધુ કધાદિને વશ બનીને સંયમનું પરિપાલન કરતા નથી અને ફરીથી પ્રમાદ, wલન અને ભૂલો કરતા જ રહે આ પ્રમાદ કરવાવાળે સાધુ આ સંસાર રૂપી સમુદ્રના પ્રવાહમાં વહેતે થકો સંસારસાગરની પાર જઈ सश्ता नथी. ॥७॥ श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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