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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् अन्वयार्थः-(जे) यः-प्राप्तवैराग्यवान साधु गुरुकुलनिवासी (ठाणओ य) स्थानतश्च (सुसाहुजुत्ते) सुसाधुयुक्तः-सुसाधुसमाचारियुक्तो भवति (य) च-पुनः (सयणासणेय) शयनासनाभ्यां शयनासनमाश्रित्य व, तत्र शयनं-शयनस्थानप्रमार्जनपूर्वकम् आसनं प्रयत्नेन गात्रसंकोचनं प्रसारणमुपवेशनं च प्रमार्जन___गुरुकुलवासी के गुणों का कथन करते हैं-'जे ठाणओं' इत्यादि। शब्दार्थ--'जे-य:' गुरु गच्छ मे विनास करने वाला साधु 'ठाणओय-स्थानतश्च स्थान से अर्थात् गुरुगच्छ में निवास करने से 'सुसाह जुत्ते-सुसाधुयुक्तः' उत्तम साधुगुणसे युक्त होता है 'य-च' और 'सयणासणेय-शयनासनाभ्याम्' शयन और आसन में सुसाधु होता है 'यावि-अपि च और भी 'समितिलु गुत्तिनु परकमे-समितिषु गुनिषु पराक्रमेत्' समिति तथा गुप्ति में पराकम वाला होता हैं अर्थात् संय मानुष्ठान में पराक्रमी होता है अतः 'आयपन्ने-आगतप्रज्ञा' कर्तव्य में विवेकशील होता है और अन्यको 'वियागरिते-व्याकुर्वन्' कथन करताहुवा 'पुढो-पृथक्पृथक् गुरु कृपासे समिति गुप्तिका यथार्थ स्वरूप का पालनपूर्वक और उसके फल का 'वएज्जा-वदेत्' प्रतिपादन करे ।५। ____ अन्वयार्थ-वह स्थान से सुसाधु की समाचारी से युक्त होता है। तथा शय्या और आसन से भी सुसाधु की समाचारी वाला होता है। अर्थात् शयन आसन और स्थान का प्रमार्जन करके तथा यतना હવે ગુકુળમાં વસનારના ગુણોનું કથન કરવામાં આવે છે – ठाणओ' इत्यादि शहा-'जे-यः' २३णमा निवास ४२१. साधु 'ठाणओयस्थानतश्च' स्थानथी अर्थात् २३४मा निवास ४२१ाथी 'सुसाहुजुत्ते-सुसाधुयुक्तः' उत्तम सेवा साधुशथी युक्त अने छे. 'य-च' मने 'सयणासणेय-शयनासना भ्याम्' शयन मन मासनमा सुसाधु सने छ. 'यावि-अपिच' ते 'समितिस गुत्तिसु परकमे-समितिषु गुप्तिपु पराक्रमेत्' समिति तथा सिमा ५२ ३२. पाने समय भने छे. अर्थात सयमानुनमा पराभी ने छ. तेथी 'आय. पन्ने-आगतप्रज्ञः' तव्यमा विवेही मने छे. मने ultने 'वियागरिते-ठयाक. वन्' ४थन रत। ५। 'पुढो-पृथक् पृथक्' २३पाथी समिति शुतिना यथार्थ २१३५र्नु पावन प्रशने तेना नु वएज्जा-वदेत्' प्रतिपादन ४३ ॥५॥ અન્વયાર્થ–જે વૈરાગ્યવાન સાધુ ગુરૂકુળમાં નિવાસ કરે છે, તે સ્થાનથી સુસાધુની સામાચારીથી યુક્ત હોય છે. અર્થાત્ શયન આસન અને સ્થાન श्री सूत्रतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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