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________________ ३४४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः-(से सः पूर्वोक्तोऽहङ्कारवान् साधुः (एगंतकूडेण उ) एकान्तकूटेन तु-अत्यन्तमोहमायादौ समासक्तः (पले) पर्येति--संसारसागरमेब पुन: पुनः प्राप्नोति, न कदाचित् संसाराद् विमुक्तो भवति (मोणपयंसि) मौनपदे संपमे (गोत्ते) गोत्रे निरयद्यवाणी-समुदायात्मकागमाधारभूते (ण विज्ञइ) न विद्यते-न तिष्ठति (जे) यः खलु (माणणद्वेण) माननार्थन-संमानाद्यर्थेन (वसुमन्नतरेण) वसुमन्यतरेण-संयमोत्कर्षेण ज्ञानादिना च मन्दं करोति एवम् (अवु ज्झमाणे) अबुदयमानः-परमार्थमबुध्यमानः सन् (विउक्कसेना) व्युत्कर्षयेत् - आत्मानं सत्कारमनादिया गर्वयुक्तं करोति ॥१॥ मौनपदे' वह संयम में 'गोत्ते-गोत्रे' आगमों के आधाररूप 'ण विजान विद्यते' नहीं है जे-य: सर्वज्ञके मतमें जो पुरुष 'माणणद्वेग-माननार्थेन' संमानादिसे तथा 'वसुमन्नतरेण-वसुमन्यतरेण' संयमके उत्कर्ष से अथवा ज्ञानादि से मद करता है ऐसा पुरुष 'अधुज्झमाणे-अयुध्य. मान:' परमार्थ को नहीं जानता हुआ 'विउक्कसे जा-व्युत्कर्षयेत्' अपने आत्माको सत्कार और मानादि से नीचे गिराता है ॥९॥ ___अन्वयार्थ-वह पूर्वोक्त अहंकारी साधु अत्यन्त मोह माया के जाल में फंसकर संसार रूप समुद्र में वारंवार इवता है कभी भी संसार से विमुक्त नहीं हो पाता, और निरवद्य आगमका आधारभूत संयम मार्ग में नहीं रहता और अपने संमानादि प्राप्ति के लिए संयमोत्कर्ष एवं ज्ञानादि से मद (अहंकार) करता है और परमार्थ तत्व को नहीं जानता हुआ अपने को सत्कार मानादि से नीचे गिराता है ॥९॥ पदे त भयममा ‘गोत्ते-गोत्रे' मागभाना साधा२ ३५ ‘ण विज्जइ-न विद्यते' यशता नथी 'जे-यः' रे ५३५ सजना मतमा 'माणणद्वेण-माननार्थेन' समान विगैरेधी तथा 'वसुमन्नतरेण-वसुमन्यतरेण' सयभना थी अथवा ज्ञानातिथी मह रे छ मेवा पु३५ 'अबुज्झमाणे-अबुध्यमानः' ५२भाथन । नती है। 'विउक्कसेज्जा-व्युत्कर्षयेत्' पाताना मामाने सहार અને માનાદિથી નીચે પાડે છે. • ___मन्वयार्थ पूरित म६री मयत मोहमायानी Ml . ઈને સંસાર રૂપી સમુદ્રમાં વારંવાર ડૂબે છે, કોઈ પણ સમયે સંસારથી મુક્ત થઈ શકતા નથી. તથા નિરવદ્ય અગમના આધારભૂત સંયમ માર્ગમાં રહેતા નથી. અને પોતાના સન્માનાદિ, પ્રાપ્તિ માટે સંયમત્કર્ષ તથાજ્ઞાનાદિમાં મદ (અહંકાર) કરે છે. અને પરમાર્થ તત્વને જાણ્યા વિના જ પિતાને સત્કાર અને માનપાનથી નીચે પાડે છે. श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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