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समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३४१ मूलम्-जे यावि अप्पं वसुमंति मत्ता,
संखाय वायं अपरिवख कुंज्जा। तवेण वाहं सहिउँत्ति मैत्ता,
अण्णं जणं पस्सइ बिंबभूयं ॥८॥ छाया-य चाऽऽत्मानं वसुमन्तं मत्वा, संख्यावन्तं वादमपरीक्षय कुर्यात् ।
तपसा वाऽहं सहित इति मच्चा, ऽन्यं जनं पश्यति बिम्बभूतम् ॥८॥ संयम के मार्ग में विवरण करने वाले मुनि को प्राय: गर्व आजाता है, अतः कहते हैं-'जे यावि' इत्यादि ।
शब्दार्थ-'जे यावि-यश्चापि' जो कोई 'अप्प-आत्मानम्' अपने को 'वसुमंति-वसुमन्तम्' संयमरूपवसुयुक्त तथा 'संखोय-संख्याव. न्तम्' जीवादिपदार्थ विषयक ज्ञानरूप संख्यावाला 'मत्ता-मत्वा' मानकर अर्थात् हम ही संयमी और ज्ञानी है ऐसा अभिमान युक्त होकर 'अप. रिक्ख-अपरीक्ष्य' विचार किये विनाही वायं-वादम्' अपनी बडाई 'कुज्जा -कुर्यात्' करता है तथा 'अहं-अहम्' हमही 'तवेण-तपसा' तपसे 'सहिउत्ति-सहितइति' युक्त है ऐसा 'मत्ता-मत्वा' मानकर 'अण्णं जणं-अन्यं जनम्' अन्य जनको "थियभूयं-बिम्बभूतम्' जल में दृश्यमान चन्द्रकी छाया के अनुसार निरर्थक 'पस्तइ-पश्यति' देखता है वह सर्वथा विवेक वर्जित है ।।८।
સંયમના માર્ગમાં વિચરણ કરવાવાળા મુનિને પ્રાયગર્વ આવી જાય છે, a मातi x 2. 'जेयावि' त्याल
शहा-जेयावि-यश्चापि' ने 13 'अप्पं-आत्मानम्' पाताने 'वसुमति वसुमन्तम्' सयम ३५ वसुयुत तथा 'संखाय-संख्यावन्तम्' पाह पहा सधा ज्ञान३५ सध्यावाणी 'मत्ता मत्वा' मानीने अर्थात् ४ सयभवाणे मन ज्ञानी छु सवा अभिमान यु४॥ ५४ने 'अपरिक्ख-अपरीक्ष्य' वियार या विना 'वाय-वादम्' पातानी मोटाई 'कु.ज्जा-कुर्यात्' १२ तथा 'अह-अहम्' हु 'तवेण - तपसा' तथा 'सहि उत्ति-सहित इति' युस्त छु से प्रमाणे 'मत्ता-मत्वा' मानाने 'अण्ण जणं-अन्यम् जनम्' मान्य न विवभयं बिम्बभूतम्' पाणीमा माती यन्द्रनी छाया अनुसार निरर्थ: ‘पस्सइ-पश्यति જુએ છે. તે સર્વથા વિવેક વજીત છે. માટે
श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3