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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्य स्वरूपनिरूपणम् अंधे से दंडेपहं ३३१ हाय, अविओसिए घास पावकम्मी ॥५॥ छाया - यः क्रोधनो भवति जगदर्थ पाषी, व्यवशमितं यस्तुदीरयेत् । अन्ध sarat दण्डपथं गृहीत्वाऽव्यवशमितो घृष्यते पापकर्मा ||५|| अन्वयार्थ - (जे) यः पुरुषः (कोहणे) क्रोधनः ( होइ) भवति = क्रोधं करोति तथा ( जगह भासी) जगदर्थभाषी-योऽन्यस्य दोषभाषणं करोति सः (जे उ) मान का फल दिखला कर अब क्रोधादि कषायों का फल कहते हैं- 'जे कोहणे' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जे - यः' जो पुरुष 'कोहणे - क्रोधनः' क्रोधवाला 'होइभवति' होता है अर्थात् क्रोधी होता है तथा 'जगह मासी जगदर्थ भाषी दूसरे के दोषों का कथन करता है तथा 'जे उ-ये तु' जो कोई 'बिओसियं व्यवशमितम् ' शान्त हुए कलह को 'उदीर एज्जा - उदीरयेत्' फिर से प्रकट करता है 'से- सः' ऐसा पावकम्मी पापकर्मा' पापकर्म करनेवाला 'अंधेव - अन्धइव' अन्धे के समान 'दंडप - दण्डपथम् लघुमार्ग को 'महाय - गृहीत्वा' ग्रहण करके 'अविओसिए - अव्यवशमितः सदा कलह करनेवाला 'घास घृष्यते' पीडित होता हुआ दुःखका अनुभव करता है ॥५॥ - अन्वयार्थ - जो पुरुष क्रोधी होता है अर्थात् क्रोध करता है और दूसरों के दोषों का भाषण करता है और जो कोई मिथ्या दुष्कृत માનનું ફળ ખતાવીને હવે ક્રોધાદિક કષાયેનું ફળ મતાવે છે.'जे कोहणे' छत्याहि शब्दार्थ –‘जे-यः' ने पु३ष 'कोहणे - क्रोधनः' अधवाणी 'होई - भवति' थाय छे. अर्थात् शेधी होय है, तथा 'जगट्टभासी जगदर्थ भाषी' मीलना होतो ईडी बतावे छे. तथा 'जे उ-ये तु' ? | 'विओसिय' - व्यव शमितम् ' शभी गयेला सडने 'उदीर एज्जा- उदीरयेत्' इरीधी यासु रे छे. 'से-सः' भ ४२वावाणी ते ५३ष 'पावकम्मी- पापकर्मा याया अश्वावाणा 'अंधेव - अन्ध इव' सांधणानी भेस 'दंडपह' - दण्डपथम् ' दुआ भार्ग'ने 'गहाय - गृहीत्वा' श्रद्धषु रीने 'अविसोसिए - अव्यवशमितः सहा उस उरवावाणी 'घासइ - घृष्यते' पीडा યુક્ત થઈને દુઃખના અનુભવ કરે છે. પ્રા અન્વયા—જે પુરૂષ ક્રોષી હાય છે. ખીજાના દોષનુ ભાષણ કરે છે, અને જે ઢાઇ श्री सूत्र तांग सूत्र : 3 અર્થાત્ ક્રોધ કરે છે. અને મિથ્યા દુષ્કૃત વિગેરે દ્વારા
SR No.006307
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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