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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १० समाधिस्वरूपनिरूपणम् जायस्स बालस्स पैक्कुव्वदेह ।
पैबड्डई वेरमैसंजयस्स ॥१७॥ छाया--पृथक्छन्दा इह मानवास्तु, क्रियाक्रियं च पृथग्वादम् ।
जातस्य बालस्य प्रकर्त्य देहं, प्रवर्द्धते वैरमसंयतस्य ॥१७॥ अन्वयार्थ:-(इह माणवा उ पुढो य छंदा) इह-अस्मिन लोके मानवा:मनुष्याः पृथक् छन्दा-मिन्नाभिपायान्तः (किरियाकिरियं पुढो य वायं) क्रिया. ऽक्रिय क्रियावादमक्रियावादम् पृथक् पृथक समाश्रिताः (जायस्स बालस्स देहं पकुव्य) जातस्य-उत्पन्न मात्रस्य बालस्य-सदसद्विवेकविकलस्य देहं प्रकर्त्य-खण्डशा कृत्वा स्वमुखमुत्पादयन्ति तदेवं परापघातक्रियां कुर्वतोऽस्य (असंजयस्स) असं. 'पुढो य छंदा' इत्यादि।
शब्दार्थ-'इह माणवाउ पुढो य छंदा-इह मानवास्तु पृथक् छन्दा:' इस लोक में मनुष्यों की रुचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है 'किरिया. किरियं च पुढोयवायं-क्रियाक्रिय च पृथकवादम्' अतः कोई क्रियावादको एवं कोई अक्रियावाद को ऐसे पृथक् पृथक रूप से मानते हैं। 'जातस्म बालस्स देह पकुव्व-जातस्य बालस्य देहं प्रकर्य' वे जन्मे हुए वालकके शरीरको काटकर अपना सुख बनाते हैं 'असंजयस्स-अमंयतम्य' ऐसे असंयत् पुरुष का वेरं पबड्डह-वैरं प्रवर्द्धते' वैर अत्यंत बढता रहता है।१७। ___ अन्वयार्थ-इस लोक में मनुष्य भिन्न भिन्न अभिप्राय वाले हैं। किसीने क्रियावाद को और किसीने अक्रियावाद को स्वीकार किया है।
'पुढोय छंदा' त्या
शहाथ---'इह माणवा उ पुढोय छंदा-इइमानवास्तु पृथक् छन्द : भातमा भनुध्यानी ३ मिन लिन्न २नी डाय छे. 'किरियाकिरिय'च पुढोयवाय -क्रियाक्रियच पृथक्वाद' तेथी । हियावाहने भने मष्ठिया पाहन सेवा शत ॥ ३थे भान . 'जातस्स बालस्स देहं पकुव्व-जातस्य बाल स्य देह प्रकर्त्य' तेसभेत मानी शरीरने पीन पातानुसुम २) छ. 'असंजयस्स-असंयतस्य' 24॥ मयत ५३५नु 'वेर पवड्ढइ-वैर प्रवर्द्धते' વેર વધતું રહે છે. જેના
અન્વયાર્થ–-આ લોકમાં મનુષ્ય જુદા જુદા અભિપ્રાયવાળા હોય છે. કોઈએ કિયાવાદ અને કેઈએ અકિયાવાદને સ્વીકાર કરેલ છે. તરતના જમેલા
श्री सूत्रकृतांग सूत्र : 3