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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६२५ कथां कथयति, स साधुभावाद्धृष्टः । यस्तु पुनराहारवस्त्रार्थ स्वकीयान् गुणान् परेण ख्यापति, सोऽप्यधमः । यश्च स्वगुणं स्वेनैव प्रकाशयति स तु अधमाधम इति भावः ॥२४॥
पुनरप्याह-'णिक्खम्म दीणे' इत्यादि। मूलम्-णिक्खम्म दीणे परभोयगंमि मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे।
नीवारगिद्धे व महावराहे अदूरए एहिई घातमेव ॥२५॥ छाया-निष्क्रम्य दीनः परभोजने मुखमांगलिक उदरानुगृद्धः।
नीवारगृ द इव महावराहः अदा एष्यति घातमेव ॥२५॥ पाने के विचार से वहाँ धर्मकथा करता है, वह साधुता से भ्रष्ट होजाता है और जो आहार वस्त्र आदि के लिए अपने गुणो को दूसरों से प्रकट करवाता है, वह भी अधम है । जो अपने गुणों को अपने ही मुख से प्रकट करता है वह अधमाधम है ॥२४॥
शब्दार्थ-'णिक्खम्म-निष्क्रम्य' जो पुरुष घर से निकलकर 'परभोयणमि दीणे-परभोजने दीनः' अन्यके भोजनकेलिये दीनबनकर 'मुहमंगलीए-मुखमांगलिकः? भाट के जैसा दूसरेकी प्रशंसा करता हैं 'नीवारगिद्धेव महावराहे-नीवारगृद्ध इव महावराहः' वह तण्डुल के दानों में आसक्त महान् सुअर के जैसा 'उदगणुगिद्ध-उदरानुगृद्ध' उदर पोषण में तत्पर है 'अदूरए-अदरे' वह शीघ्र ही 'घायमेव-धातमेव' नाशको ही 'एहिइ-एष्यति' प्राप्त होते है ॥२५॥ ભજન પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છાથી, ધર્મકથા કરે છે. તે સાધુના ધર્મનું આચારોનું પાલન નહીં કરવાને કારણે “સાધુ” કહેવાને પાત્ર નથી. વળી જે સાધુ આહાર, વસ્ત્ર આદિને માટે બીજાની પાસે પોતાના ગુણોની પ્રશંસા કરાવે છે, તે પણ અધમ છે. જે પિતાનાં ગુણે પિતાને જ મેઢે પ્રકટ કરે છે તેને તે અધમમાં અધમ કહી શકાય. ગાથા ૨૪
'णिक्खम्म दीणे' त्याह
Awa-'णिक्खम्म-निष्क्रम्य रे ५३५ धेरथी नीजीन 'परभोयणसि दोणे-परभोजने दोनः' मन्यन न माटे हीन मनीने 'मुहमंगलीएमुखमांगलिक' लाटनी म मीonal qभा ४२ छ 'नीवारगिद्धेव महावराहेनीवारगृद्ध इव महावराहः' ते यामानामा मासात मोटर सुनी गेम 'उदराणुगिद्धे-उदरानुगृद्धः' १२ पौषमा तत्५२ छ, 'अदाए-अदूरे' माथी 'बायमेव-घातमेव' नाशने । 'एहिइ-एष्यति' प्राप्त थाय छे. ॥२५॥
શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨