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________________ ६०२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अपि च-शीतोदकोपभोगेन सिद्धिमिच्छतां मतं निराकृत्याऽनन्तरं ये तेजस्काय. विराषनेन सिद्धि प्रतिपादयन्ति, तन्मतं निराकर्तुमाह-'हुएण जे सिद्धिं इत्यादि। मूलम्-हएण जे सिद्धि मुंदाहरंति सायं च पायं अगणि फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज तम्हा अगणिं फुसंताण कुकैम्मिपि ॥१८॥ छाया--हुतेन ये सिद्धि मुद्दाहरन्ति सायं च पातरग्नि स्पृशन्तः । एवं स्यात् सिद्धि भवेत् तस्मादग्नि स्पृशतां कुकर्मिणामपि ॥१८॥ कीचड़ से कीचड़ का धुलना न किसी शास्त्र से सिद्ध है, न अनुभव से ही । इसी प्रकार पाप से पार का विनाश होना संभव नहीं है ॥१७॥ सचित्त जल के उपयोग से सिद्धि मानने वालों के मत का निराकरण करके अब जो अग्निकाध की विराधना से सिद्धि का कथन करते हैं उनके मत का प्रतिषेध करते हैं-'हुएण जे' इत्यादि। शब्दार्थ-'सायं च पायं अगणि फुसंता-सायं च प्रातः अग्नि स्पृशन्तः' सायंकाल एवं प्रातः काल अग्नि का स्पर्श करते हुए 'जे-ये' जो लोक 'हुएण सिद्धि मुदाहरंति-हुतेन सिद्धिमुदाहरन्ति' होम करने से मुक्ति की प्राप्ति कहते हैं वे भी असत्यवादी ही है कारण की 'एवं सिया सिद्धि-एवं स्यात् सिद्धिः' यदि अग्नि के सेवन से सिद्धि मिले तो 'अगणिं फुसंताग कुकम्मिणं पि हवेज्ज-अग्नि स्पृशता અને અનુભવથી પણ એ વાત સિદ્ધ થતી નથી. એ જ પ્રમાણે પાપથી પાપનું નિવારણ થવાનો સંભવ નથી. ગાથા લાલ સચિત્ત જલને ઉપભેગ કરવાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, એવું માનનારા લોકોના મતનું નિવારણ કરવામાં આવ્યું. હવે અગ્નિકાયની વિરાધનાથી–હોમ હવન કરવાથી મોક્ષ મળે છે. એવું માનનારા લોકોના મતનું सूत्रा२ ५'3न रे छे 'हुएण जे छत्याहि Awथ-सायं च पायं अगणि फुसंता-सायं च प्रातः अग्निं स्पृशन्तः' સાયંકાલ અને પ્રાતઃકાલ અગ્નિને સ્પર્શ કરતાં કરતાં જે- જે લેકે 'हएण सिद्धिमुदाहरंति-हुतेन सिद्धिमुदाहरंति' म ४२वाथी भुति प्राप्त यवान ४ , तेथे। ५९ सत्यवाही ० छ. ॥२६४-'एवं सिया सिद्धिएवं स्यात् सिद्धिः' भनिना सेवनथा सिद्धि भणे तो 'अगणि फुसंताण कुकम्मिणपि हवेज्ज-अग्निं स्पृशतां कुकर्मिणामपि भवेत्' भनिन। २५० ४२१/ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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