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पार्श्वबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम्
छाया - संबुध्यध्वं जंतवो मनुष्यत्वं दृष्ट्वा मयं वाळिशेनालभ्यः । एकान्तदुःखो ज्वरित इव लोकः स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति ॥ ११॥ अन्वयार्थ : - (जंतवt) हे जन्तवः हे प्राणिनः ( माणुसत्तं) मनुष्यत्वं - मनुजमवं दुर्लभ (संबुज्झहा) सबुध्यध्वं - जानीत ( भयं दट) भयं तिर्थगादिभवसंबंधि दुःखं दृष्ट्रा (बालिसेणं अलंभो) बालिशेन विवेकरहित पुरुषेण अलभ्यः उत्तमदिवेको न लभ्यते इत्यपि जानीत (लोए) अयं लोकः (जरिए व) ज्वरित इव (एतदुक्खे)
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'संबुज्झहा जंतवो' इत्यादि ।
शब्दार्थ - ' जतवो - जेतवः' हे जीवों 'माणुसत्तं - मनुष्यत्वं' मनुष्य भव की दुर्लभताको 'संबुज्झहा- संबुध्यध्वं' समझलो 'भयं दट्टु-भयं दृष्टा' भय को अर्थात् नरक तथा तिर्येच आदि योनि के भय को देखकर 'वालि सेणं अलंभो - पालिशेनालभ्यः' विवेकहीन पुरुष को उत्तम विवे कका अलाभ जानकर बोध प्राप्त करो 'लोए-लोकः' यह लोक 'जरिए वज्वरित इव' ज्वर से पीडित के जैसा 'एगंतदुक्खे - एकान्तदुःखी' सब प्रकार से दुःखी है 'सकम्मुणा विपरियासुवेइ- स्वकर्मणा विपर्यासमुपैती' यह अपने कर्म से सुख को चाहता हुआ दुःख को ही प्राप्त करता है ॥ ११॥
अन्वयार्थ - हे जीवो ! मनुष्यभव दुर्लभ है, इस तथ्य को समझो। यह भी समझलो कि अज्ञानी जनों को विवेक की प्राप्ति नहीं होती । तिथंच आदि भावों संबंधी भय दुःख को देख कर यह समझो कि यह लोक ज्वरग्रस्त की भाँति एकान्त रूप से दुःखी हो रहा है। वह अपने
'सं बुझा जंतवे।' त्याहि
शब्दार्थ - 'जंतवो - जंतवः' हे वे 'मणुरसत्तं - मनुष्यत्वं' भनुष्यलवनी दुस' लताने 'संबुज्झहा - संबुध्यध्वम्' समको 'भय' दट्ठे - भयं दृष्ट्वा' लयने अर्थात् नर तथा तियय विगेरे योनीना लयने लेने 'बालिसेणं अलंभोबालिशेनालभ्यः' विवे विनाना युषने उत्तम विवेऽनो मसाल समलने मोघ प्राप्त 'लोए - लोकः' मा सो 'जरिएव - ज्वरित इव' तावथी पीडा पामेसानी भ 'एतदुक्खे - एकान्तदुःखी' अधी रीते हुामी छे. 'सकम्मुणा विपरियासुवेइ - स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति' या पोताना उर्भथी सुखने हरिछता था દુઃખને જ પ્રાપ્ત કરે છે. । ૧૧ ।
સૂત્રા—હૈ જીવા ! મનુષ્યભવ દુલ ભ છે, આ તથ્યને સમજો. વળી એ વાત પણ સમજી લેા કે અન્નાની જનાને વિવેકની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તિયચ આદિ ભવાના ભય તથા દુઃખાને જોઈને એટલું તેા સમજી લે કે આ લેાક જવરમાં જકડાયેલાની જેમ એકાન્ત રૂપે દુઃખના અનુભવ કરી રહ્યો
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૨