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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५६५ मातापितरौ परित्यज्य श्रमणव्रतं स्वीकृत्यापि अग्निकार्य प्रज्यालयति, तथा स्वात्मसुखेच्छया पाणिनमुपहन्ति सः कुशीलधर्मा 'अहं' अथ एवम् 'आहु' आहुः-तीर्थकरणगधारादयः ॥५॥ ___ अग्निकायसमारंभे पाणिनामनिपातः कथं भवतीति सूत्रकारः प्रदर्शयति'उज्जालो पाण' इत्यादि। मूलम्-उज्जालओ पाण निवाय एज्जा, निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा। तम्ह। उ मेहावि समिक्खधम्म ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ॥६॥ या--उज्जमालका प्राणान् निगतयेत् निर्यापकोऽग्नि निपातयेत् । तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म न पण्डितोग्नि समारभेत ॥६॥ ___तात्पर्य यह है कि जो लोग मातापिता आदि परिवार का परित्याग करके और श्रमण का व्रत अंगीकार करके भी अग्नि का आरंभ करते हैं, तथा अपने सुख की इच्छा से प्राणियों का घात करते हैं, वे कुशीलधर्मी कहलाते हैं। तीर्थकरो एवं गणधरोंने उन्हें कुशीलधर्मी कहा है ॥५॥ ___ अग्निकाय के आरंभ में प्राणियों का घात किस प्रकार होता है, यह सूत्रकार दिखलाते है-'उज्जालमओ पाण' इत्यादि। शब्दार्थ-'उज्जालओ-उज्ज्यालका' अग्नि जलाने वाला पुरुष 'पाण नियायएज्जा-प्राणान् निपातयेत्' प्राणियों का घात करता है, तथा 'निन्याय भो-निर्यापकः' अग्नि को बुझाने वाला पुरुष भी 'अगणि તાત્પર્ય એ છે કે જેઓ માતાપિતા આદિ પરિવારને ત્યાગ કરીને શ્રમણવ્રત અંગીકાર કરવા છતાં પણ અગ્નિને આરે ભ કરે છે, તથા પિતાના સુખને માટે પ્રાણીઓને ઘાત કરે છે, તેમને કુશીલધમી કહેવાય છે. ગણધરોએ એવાં પાંખડી સાધુઓને કુશીલધર્મ કહ્યા છે. ગાથા પ અગ્નિકાયના આરંભમાં પ્રાણીઓનો ઘાત કેવી રીતે થાય છે, તે સૂત્ર१२ वे समान छ-'उज्जालओ पाण' त्याह शहाथ-'उज्जालओ-उज्यालकः' मनि समावापानी पु३५ 'पाण निवाय. एज्जा-प्राणान् निपातयेत्' प्राणियोनो घात ४३ छ, त॥ निव्वावओ-निर्यापकः' શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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