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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशोलयतां दोषनिरूपणम् १६३
अन्वयार्थः-(जे मायरं पियरं च हिच्या) यः पुरुषो मातर जननी पित चहित्या परित्यज्य (समणधए) श्रमणव्रते-साधुदीक्षामादाय (अगणि समारमिज्जा) अग्नि समारभेत-अग्निकायस्य समारम्भं कुर्यात् (जे आयसाते) यः आत्मशासे स्वसुखाय (भूयाइं हिंसइ) भूतानि हिनस्ति-विराधयति (से लोए) स लोके (कुसीलधम्मा) कुशीलधर्माऽस्तीति (अहाहुः) अथाहुः) तीर्थकरादयः कथयन्ति ॥५॥
सामान्य रूप से कुशोलजनों के विषय में कह कर अब सूत्रकार पाखण्डी लोगों के विषय में कहते हैं- 'जे मायरं पियरं' इत्यादि।
शब्दार्थ-'जे मायरं पियरं च हिच्चा-यो मातरं पितरं च हित्या' जो पुरुष माता और पिताको छोडकर 'समणव्यए-श्रमणवते' श्रमणवत धारण करके 'अगणिं समारभिज्जा-अग्नि समारभेत' अग्निकायका आरंभ करते हैं तथा 'जे आयसाते-यः आत्मशाते' जो अपने सुख के लिये 'भूयाइं हिंसइ-भूतानि हिस्ति' प्राणियों की हिंसा करते है 'से लोए-स लोके' वे इस लोक में 'कुसीलधम्मे-कुशीलघमा कुशील धर्म वाले है 'अहाहु-अधाहुः' ऐसा सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है ॥५॥
अन्वयार्थ जो पुरुष माता और पिता को त्याग करके श्रमणव्रत में उपस्थित हुआ अर्थात् दीक्षित हुआ है। फिर भी अग्नि का आरभ समार म करता है, जो अपने सुख के लिए भूतों का घात करता है, यह पुरुष 'कुशीलधर्म' वाला कहलाता है ॥५॥
સામાન્ય રૂપે કુશીલ જનના વિષયમાં કહીને હવે સૂત્રકાર પાખડી લેકેના વિષયમાં આ પ્રમાણે કહે છે–
'जे मायर पियर' त्याह
शहाथ-'जे मायर पियरं च हिच्चा-ये मातर पितरच हित्या' पु३५ भाता भने पितान छीने 'समणव्यए-श्रमणव्रते' श्रमानत पा२५ शन अगणि' समारभिजा-अग्नि समारभते' सियन। मार मरे छ, तथा जे आयसाते-यः आत्मशात.' मी पोताना सुम भाट 'भूयाई हिंमइ-भूतानि हिनस्ति' प्रालियोनी सा रे छे से लोए-सः लोके' ते माहो 'कुसीलधम्मे-कुशीलधर्मा' शीव या छ. 'अहाहु-अथाहुः' मे शते सपा पुरषाये घुछे. ॥५॥
સૂત્રાર્થ-જે પુરુષ માતા, પિતા આદિને ત્યાગ કરીને શ્રવણવ્રત-દીક્ષા અગીકાર કરવા છતાં પણ અગ્નિને આરંભ સમારંભ કરે છે, જે પિતાના सुभने भाट भूतान। (योनी) ४.२ ४३ छे, ते पुरुषने समयमा કહેવાય છે. પણ
શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨