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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०३
अन्ययार्थः-(अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता) अनुत्तरं-सयत उत्तरं-श्रेष्ठं धम-श्रुा. चारित्ररूपम् उदीयं-कथयित्या (अणुत्तरं झाणवरं झियाइ) अनुत्तरं-सर्वश्रेष्टं ध्यानवरं ध्यायति (सुसुक्कसु) सुशुक्लशुक्लम् -अत्यन्त शुक्लयच्छुक्लम् (अपगंडमुयक) अपगण्डशुक्लं निर्दोषशुक्लम् (संखिंकुएगंतवदातसुक्कं) शंखेन्दुवदेकान्ताऽचदातशुक्लम्, शंखचन्द्रवत् सर्वथा विशुद्धमिति ॥१६॥ 'अणुत्तरं' इत्यादि।
शब्दार्थ-'अनुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता-अनुत्तरं धर्ममुदीरयित्वा' भगवान् महावीर स्वामी सर्वोत्तम श्रुतचारित्र रूप धर्म को कहकर 'अणु तरं झाणवरं झियाइ-अनुतरं ध्यानयरं ध्यायति' सर्वोत्तम ध्यान ध्या. तेथे 'सुसुक्कसुक्कं-सुशुक्लशुक्लं' भगवान का ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल था 'अपगंडसुक्कं-अपगण्डशुक्लं' तथा यह दोषरहित शुक्ल था 'संखिंदुएगंतवदातसुक्कं-शखेन्दुघदेकान्तावदातशुक्लम्' वह शंख तथा चन्द्रमा के समान सर्व प्रकार से शुक्ल था ॥१६॥ __ अन्वयार्थ-ज्ञातपुत्र महावीर अनुत्तर श्रुत चारित्र धर्म का कथन करके अनु तरध्यान करते थे। उनका ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल, दोषयर्जित तथा शंख या चन्द्रमा के समान सर्वथा स्वच्छ और शुद्ध था ॥१६॥ 'अणुतर' त्या
शहा-'अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता-अनुत्तरं धर्ममुदिरयित्वा' मावान् महावीर स्वामी सर्वोत्तम सेवा श्रुतयारित्र३५ ५महीने 'अनुतरं झाणवरं झियाइ-अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति' सर्वोत्तमध्यान घरता ता. 'सुसुक्कसुकंसुशुक्लशुकं' लगवानखें ध्यान सत्य शुस १४ सरभु शुस हेतु 'अपगण्डप्लुक्लं-अपगण्डसुक्लम्' तथा ते निष शुस तु. 'संखिदु एगंतव. दातसुक-शंखेन्दुयदेकांतशुक्लम्' ५५ तथा यमा सरीभु स २थी शु४८ ॥१६॥
સૂવાથં–જ્ઞાતપુત્ર મહાવીર અનુત્તર (સર્વોત્તમ) શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મની પ્રરૂપણ કરતા હતા અને અનુત્તર ધ્યાન ધરતા હતા. તેમનું ધ્યાન અત્યન્ત શુકલ વસ્તુના સમાન શુકલ, દોષરહિત, તથા શેખ અથવા ચદ્રમાના સમાન સર્વથા સ્વચ્છ અને શુદ્ધ હતું. ૧૬
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૨