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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुगवर्णनम् ४६१ ___ अन्वयार्थ:-(से) स वर्द्धमानस्वामी (खेयन्नए) खेदज्ञः-संसारिणां कर्मविपाकजदुःखज्ञायकः (कुस महेसी) कुशल:-कर्मोच्छेदने निपुणः, महा ऋषि:सर्वत्र सदोपयोगवान (अनंतनाणी) अनन्तज्ञानी- केवलज्ञानवान् (य) च-पुन: (अणंवदंसी) अनन्तदर्शी-केवलदर्शनवान् आसीत् । एतादृशस्य (जसंसिणो) यशस्विनः (चक्खुरहे ठियस्स) चक्षुःपथे स्थितस्य-लोचनमार्गे भवस्थकेवल्यवस्थायां विद्यमानस्य (धम्म) धर्म श्रुतचारित्ररूपं (जागाहि) जानीहि (धियं च पेहि) धृति च तस्य भगवतो धैर्य प्रेक्षस्व-सम्यक् कुशाग्रबुद्धया पर्यालोचय इति ।। सू०३ ॥ कुशलः महर्षिः वह आठ प्रकार के कर्मों का छेदन करनेवाले और महान् ऋषि थे 'अनंतनाणी-अनन्त ज्ञानी' वे अनन्त ज्ञानवाले 'य-च' और 'अणंतदंसी-अनन्तदर्शी' केवल दर्शन वाले थे 'जसंसिणोयशस्विनः' कीर्तिवाले तथा 'चक्खुपहे ठियस्स-चक्षुःपथे स्थितस्य' जगत् के लोचनमार्गमें स्थित भगवान् के 'धम्म-धर्म' श्रुतचरित्ररूपधर्म को 'जाणाहि-जानीहि तुम जानो 'धियं च पेहि-धृति च प्रेक्षस्व' एवं उनकी धीरता को विचारो॥३॥ ___अन्वयार्थ-बर्द्धमान स्वामी खेदज्ञ थे अर्थात् संसारी जीवों को कर्म के परिपाक से होनेवाले दुःख का ज्ञाता थे। वह कुशल अर्थात् कर्मों का उच्छेदन करने में निपुण थे। महाऋषि थे अर्थात् उनका उपयोग सर्वत्र और सर्वदा लगा ही रहता था। वह अनन्त ज्ञानी और अनन्त दर्शनी अर्थात् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे ! उन यशस्वी तथा ALB X४२ना भानु छैन ४२१वाणा भने महान् ऋषि तi 'अनंतनाणी' अनन्तज्ञानी' त सनत ज्ञानवाणा 'य-च' सन 'अणंतदेसी-अनन्तदी' पर शनाप ता. 'जसिणो-यशस्विनः' हीत तथा 'चक्खुपहे ठियस्स-चक्षुःपथे स्थितस्य' नयन भाभा स्थित मानना 'धम्म -धर्म' श्रुत यास्त्रि ३५ ५२ 'जणाहि-जानीहि' तमे न धियं च पेहिधृत्तिं च प्रेक्षस्व' अवम तेमनी धीरताने विद्यारी'. ॥ ३॥ - સૂવાઈ–વર્ધમાન સ્વામી ખેદજ્ઞ હતા એટલે કે કર્મના પરિપાક રૂપે સંસારી અને જે દુઃખ સહન કરવા પડે છે. તેને જાણકાર હતા. તેઓ કુશલ હતા, એટલે કે કમેને નાશ કરવામાં નિપુણ હતા. તેઓ મહર્ષિ હતા એટલે કે તેમને ઉપગ સર્વત્ર અને સર્વદા પ્રવૃત્ત જ રહેતું હતું. તેઓ અનન્ત જ્ઞાન અને અનન્ત દર્શનથી સંપન્ન એટલેકે સર્વજ્ઞ અને સર્વદશી હતા. તે યશસ્વી તથા ભવસ્થકેવલી અવસ્થામાં આપની (શિષ્યસમૂહની) શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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