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________________ समार्थबोधिनी टीका प्र. क्षु. अ. ३ उ. १ परतीर्थिकैः पीडोत्पादनम् ३३ रागद्वेषाऽधीनाः । 'केई' के पि = ३त्थंभूताः 'अनारिया' अनार्या :- अहिंसा धर्ममर्माऽनभिज्ञाः सदाचारे वर्त्तमानं साधु क्रीडाप्रद्वेषाभ्याम् 'लसंति' लूषयंति पीडयन्ति दण्डादिप्रहारैः कटुशन्देव । केचित् अनार्याः आत्मदण्डसमाचाराः तथा विपरीतमतयः रागद्वेषाभ्यां साधुं पीडयन्ति इति ॥ १४ ॥ मूळम् - अप्पेगे पलियंतेसिं चारो चोरोति सुवयं । ५ बंधति भिक्खुयं वाला कसायवयणेहि य ॥ १५ ॥ छाया -- अप्येके पर्यन्ते चारश्रौर इति सुव्रतम् । बध्नन्ति भिक्षुकं बालाः कषायवचनैश्च ॥ १५॥ द्वेष से आपन्न हैं अर्थात् पाप का आचरण करने में अनुरागी और धर्म का आचरण करने में देवकार हैं-रागी और द्वेषी हैं, ऐसे कोई कोई अनार्य, अहिंसा धर्म के मर्म से अनभिज्ञ लोग सदाचारपरायण को क्रीडा या द्वेष से प्रेरित होकर दण्ड आदि का प्रहार करके अथवा कटुक शब्द कहकर पीडा पहुंचाते हैं। तात्पर्य यह है कि कोई कोई आत्मा के लिए अहितकर आचरण करने वाले और विपरीत बुद्धि वाले लोंग रागद्वेष से प्रेरित होकर साधु को कष्ट देते हैं ॥१४॥ साधु शब्दार्थ - 'अप्पेगे - अप्येके' कोई 'बाला - बालाः' अज्ञानी पुरुष 'पलि यंतेसि - पर्यन्ते' अनाये इसके आसपास विचरते हुए 'सुब्वयं सुव्रतम्' साधु को 'भिक्खु - भिक्षुकम्' भिक्षुक को 'चारो चोरोति- चारचोर इति' यह गुप्तचर है अथवा चोर है ऐसा कहते हुए 'बंधंति - बध्नन्ति' रस्सी आदि से बांधते है तथा 'कसायवपणेहिय-कषायवचनैः ' कटुवचन कहकर साधुको पीडित करते हैं ॥ १५ ॥ કરે છે અને ધર્માચરણ કરવામાં દ્વેષ યુક્ત છે એવાં રાગ દ્વેષ ચુક્ત, અને અહિંસા ધર્મથી અનભિજ્ઞ કોઇ કઇ અનાય લેાકેા સદાચાર પરાયણ સાધુઓને પેાતાના આનંદને ખાતર અથવા દ્વેષભાવથી પ્રેરાઇને લાકડી આદિના પ્રહાર વર્ડ અથવા કટુ શબ્દો વડે પીડા પહેાંચાડે છે. આ સમસ્ત કથનના ભાવાથ એ છે કે કઈ કઈ આત્મદ્ભુિતના ઘાતક અને વિપરીત બુદ્ધિવાળા રાગદ્વેષથી પ્રેરાઈને સાધુને કષ્ટ દે છે. ગાથા ૧૪ शब्दार्थ –'अप्पेगे - अप्येके' अर्थ 'बाला - बालाः' अज्ञानी पु३ष 'पलियंतेसिं - पर्यन्ते' अनार्थ देशना आसपासमा ३२तां 'सुव्वयं सुव्रतम्' साधुने 'भिक्खुयं - विक्षुकम्' लिक्षुउने 'चारो - चोरोत्ति - चारचौर इति' मा गुप्तथर छे अथवा शर छेता 'बंधंति - बध्नन्ति 'छोरी वगेरेथी जांघे छे तथा 'कसायवयणेहियकषायवचनैः' टु वयन उडीने साधुने पीडित अर्थात् हामी हरे है. ॥१५॥ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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