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________________ - ४०६ सूत्रकृताङ्गसूत्र ___ अन्वयार्थः-(बालं) बालं-नारकं (कंसु) कन्दुषु-कन्दुकाकृतिनरकेषु (पक्खिप्प) प्रक्षिप्य-पातयित्वा-परमाधार्मिकाः (पयंति) पचन्ति (दड्रा) दग्धास्ते नारकाः (तओवि) ततोपि-तस्मादपि स्थानात (पुणो उप्पयंति) पुनरपि उत्पतन्तिउच्छलन्ति तत्रापि (ते) ते नारक नीवाः (उडकाएहिं) ऊर्ध्वकाकैद्रोणकाकैः (पखज्जमाणा) प्रखायमानाः-भक्षिताः सन्तः (अवरेहि) अपरैरन्यैः (सणप्फएहिं) सनखपदैः-सिंहादिभिः (खज्जति) खाद्यन्ते भक्षिता भवन्तीति ॥७॥ टीका-'बालं' बाल-विवेकरहितं नारकिजीवम् 'कंसु' कन्दुकावति कुंभीषु 'पक्खिप्प' प्रक्षिप्य-पातयित्वा ते परमाधार्मिकाः पयंति' पचन्ति 'तओवि ततो. ऽपि तदनन्तरम् 'दड्डा' दग्धाः 'पुण' पुनः 'उप्पयंति' उत्पतन्ति, ऊर्ध्वम् उत्क्षिप्ताः 'तओ वि-ततोपि' वहां से भी 'पुणो उप्पयंति-पुनरपि उत्पतन्ति' फिर ऊपर उछलते हैं 'ते-ते' वे नारकि जीव 'उडकाएहिं-ऊर्ध्वकाकैः' द्रोण नाम के काक के द्वारा 'पखज्जमाणा-प्रखाद्यमानाः' खाए जाते हैं 'अवरहि-अपरैः' तथा दूसरे 'सणफएहि-सनखपदैः' सिंह व्याध आदि के द्वारा भी 'खज्जंति-खाद्यन्ते' खाए जाते हैं ॥७॥ अन्वयार्थ-परमाधार्मिक असुर अज्ञानी नारक को कन्दुक (गेंद) के समान आकृति वाले नरक में गिराकर पकाते हैं । दग्ध हुए (अग्नि से जलते हुए) नारक जब उससे ऊपर उछलते हैं तो द्रोण काकों के द्वारा खाये जाते हैं । (नीचे आते हैं तो) सिंह आदि के द्वारा भक्षण किये जाते हैं ॥७॥ टीका-विवेकविकल नारक जीव को कन्दुक जैसी आकृतिवाली कुंभी में गिराकर परमाधार्मिक पकाते हैं। जब वे उसमें जलने के 'पुणो उप्पयंति-पुनरपि उत्पतन्ति' पाछ। ५२ णे छ 'ते-ते' ते ना२४७१ 'उडूढकारहि-ऊर्ध्वकाकैः' द्रो नामना १४ पक्षिन वा 'पखज्जमाणा-प्रखाद्यमानाः' 'भवाता मेवा ते 'अवरेहि-अपरैः' भी 'सणप्फएहि-सनखपदैः' सिह, वाघ वगैरेना द्वारा ५६॥ 'खजंति-खाद्यन्ते' मावामां आवे छे. ॥७॥ પરમધામિકે અજ્ઞાની નારકને કન્ફક (દડા)ના જેવા આકારના નરકમાં નાખીને પકાવે છે. અગ્નિને લીધે દાઝતા નારકે જ્યારે તે જગ્યાએથી ઊંચે ઉછળે છે, ત્યારે દ્રોણ નામના કાગડાએ તેમને ખાવા માંડે છે, જે તેઓ નીચે આવી પડે છે, તે સિંહ આદિ હિંસક જાનવરે તેમનું ભક્ષણ કરે છે. શા ટીકાથ–પરમધાર્મિક અસુરે તે અજ્ઞાન (વિવેકરહિત) નારકને દડાના આકારની કુંભમાં પટકીને પકાવે છે. તે કુંભમાં જ્યારે શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
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