SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - - - समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ. ४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २१९ अपि चमूलम्-सीहं जहा व कुणिमेणं निब्भयमेगचरंति पासणं। एवित्थिंयाउ बंधति संवुड एगतियमणगारं ॥८॥ छाया-सिंहं यथा मांसेन निर्भयमेकचर पाशेन । एवं स्त्रियो बध्नन्ति संवृतमेकतयमनगारम् ॥८॥ अन्वयार्थ:--(जहा) यथा (निमय) निर्भयंगतभयं (एगचरंति) एकचरम् (सीहं) सिंहम् (कुणिमेणं) मांसेन-मासं दत्त्वा (पासेणं) पाशेन गलत्रादिना (बंधंति) बध्नन्ति वधिकाः (एवं) एवं तथैव (इत्थियाउ) स्त्रियः (संवुड) संवृतं आज्ञा के अनुसार अच्छा या बुरा कार्य करता है, उसी प्रकार स्त्रियां साधु को अपने अधीन हुआ जानकर उसे कुकर्म करने में प्रवृत्त करती हैं ॥७॥ शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे निभयं-निर्भयम्' भयरहित 'एगच. रंति- एकचरम्' अकेला ही विचरनेवाले 'सीहं-सिंहम्' सिंहको 'कुणिमेणं-मांसेन' मांस देकर 'पासेणं-पाशेन' पाशके द्वारा ' बंधंति वनन्ति' वधाजन पकड लेते है-एवं-एवम्' उसी प्रकार 'इत्थियारस्त्रिया' स्त्रियां 'संधुडं-'संवृतम्' मन वचन और कायसे गुप्त ऐसे और 'एगतयं-एकतिक' एकाकी 'अणगारं-अनगारम्' साधुको 'बंधंतिबध्नन्ति' अपने हावभावरूपी पाशसे बांध लेती हैं ॥८॥ अन्वयार्थ-जैसे निर्भय और एकाकी विचरण करने वाले सिंह को मांस से लुभाकर शिकारी पाश में बांध लेते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ संवरयुक्त अर्थात् मन वचन एवं काय से गुप्त, एकाकी अनगार को फँसा लेती हैं ॥८॥ માલિક સારું અથવા નરસું કામ કરાવી શકે છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રી સાધને પિતાને આધીન થયેલે જાણીને તેને કુકર્મ કરવામાં પ્રવૃત્ત કરે છે પાછા साथ – 'जहा-यथा' म 'निभयं-निर्भयम्' अयथी २हित भने 'एग चरंति-एकचरम्' मेसो वियरवा 'सीहं-सिंहम्' सिंहले 'कुणिमेणंमांसेन' मांस मापान 'पासेणं-पाशेन' पाश ।। 'बंधंति-बध्नन्ति' शिशय। ५४ी से छ, 'एवं-एवम् मे शते 'इत्थियाउ--स्त्रियः' रियो 'संवुडं-संवृतम्' मन वयन भने यथा सुस्त सेवा भने 'एगतयं-एगतिकं' मेसा सेवा 'अणगारं-अनगारम्' साधुन 'बंधति-बध्नन्ति' पोताना हायला ३५ी पाथी બાંધી લે છે. ૮ સૂત્રાર્થ—જેવી રીતે નિર્ભય અને એકલા વિચરતા સિંહને માંસ વડે લલચાવીને શિકારી પાશમાં બાંધી લે છે, એજ પ્રમાણે સિઓ પણ સંવરયુક્ત-મન, વચન અને કાયગુપ્તિથી યુક્ત એકાકી સાધુને ફસાવી લે છે, શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006306
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages728
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy