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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ३ उ.२ वादिशास्त्रार्थे समभावोपदेशः १३५ इमं वक्ष्यमाणम् 'धम्म' धर्मम्-धरतिदुर्गतौ प्रपततः प्राणिनः शुभस्थाने च धचे इति धर्मस्तम् । अथवा-अभ्युदयनिःश्रेयससाधको धर्मः तादृशम्-धर्मम् श्रुतवारित्राख्यम् 'आदाय' आदाय-गृहीत्या 'समाहिए' समाहितचित्तः 'भिक्खु भिक्षुः= साधु: 'गिलाणस्स' ग्लानस्य-ज्वरादि पीडितस्य साधोः 'अगिलाए' अग्लाना ग्लानिरहितो भूत्वा 'कुज्जा' कुर्यात् वैयावृत्त्यादिकम् ॥२०॥ मूलम्-संखोय पेसलं धम्म दिट्टिमं परिनिव्वुडे ।
उवसंग्गे नियामित्ता आमोक्खाय परिवएजासि ॥२१॥ ॥ ततीय अज्झयणस्स तइओ उद्देसो समत्तो॥ तिबेमि ॥ छाया--संख्याय पेशलं धर्म दृष्टिमान् परिनिर्वृतः।
उपसर्गान् सनियम्य आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥२१॥इति ब्रवीमि॥ किया है वह 'धर्म' कहलाता है । अथवा जिससे अभ्युदय अर्थात् स्वर्ग और निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह धर्म कहलाता है। ऐसा धर्म श्रुतरूप और चारित्ररूप है । इस धर्म को धारण करके समाधियुक्त चित्तवाला मुनि ज्वर आदि से ग्रस्त दूसरे मुनि की ग्लानि से रहित होकर वैयावृत्य आदि करें ॥२०॥
शब्दार्थ--'दिटिमं-दृष्टिमान्' जीवाजीवादि पदार्थ के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाला 'परिनिव्वुडे-परिनिर्वृतः'राग द्वेषवर्जित शांत मुनि 'पेसलं धम्म-पेशलं धर्मम्' उत्तम श्रुतचारित्ररूप धर्म को संखायसंख्याय' जानकर' उवसग्गे-उपसर्गान्' अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गों को 'नियामित्ता-नियम्य' अपने वश में करके 'आमोक्खाय-आमोक्षाय' मोक्षप्राप्तिपर्यन्त 'परिश्वए-परिव्रजेत्' संयम का अनुष्ठान करें ॥२१॥ છે. અથવા જેના દ્વારા અભ્યદય (સ્વર્ગ અને નિઃશ્રેયસની-મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેને ધર્મ કહે છે. એ ધર્મ શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ છે. આ ધર્મને ધારણ કરીને સમાધિયુક્ત ચિત્તવાળા મુનિએ ગ્લાનિનો ત્યાગ કરીને -પ્રસન્ન ચિત્તે, તાવ આદિ બીમારીથી પીડાતા મુનિની સેવા કરવી જોઈએ ૨૦
Avg- दिदिम-दृष्टिमान्' 49 परे पहानी १३५२ यथा ३५थी attrai परिनिव्वुडे-परिनिर्वृतः' रागद्वेष १ शांतमुनि पेसलं धम्म-पेशलं धर्मम्' उत्तम श्रुत यारित्र३५ धमन संखाय-संख्याय' की 'उसग्गे-उपसर्गान्' सनुप प्रति अ५सनि नियामित्ता-नियम्य' पाताने १शमा ४शन 'आमोक्वाय-आमोक्षाय' क्षति पय त (सुधि) 'परिव्यएपरिव्रजेत्' सयभनु मनुष्ठान इरे. ॥२१॥
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૨