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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४७७ -अन्वयार्थ:(देवा) देवाः देवताः (गंधधरक्खसा) गंधर्वराक्षसाः (असुरा) असुराः (भूमिचरा)भूमिचराः भूमौ पृथिव्यां चरणशीलाः, (सरीसिवा) सरीसृपाः सदिय (राया) राजानः नृपाः (नरसेहिमाहणा) नरश्रेष्ठिब्रह्मणाः, नरा मनुष्याः श्रेष्ठिन:: नगरशेष्ठिनः ब्राह्मणाः असिद्धाः (तेवि) तेपि, ते उपयुक्ताः देवादयः सर्वे(दुक्खिया) दुःखिताःसन्तः (ठाणा) स्थानानि स्वकीयस्थानानि (चयंति) त्यजन्तीति सर्वे देवादयः दुःखिता एव स्वस्थानं परित्यजन्ति दुःखिताःअवश्यमेव भवन्तीति भावः ॥५॥ इस जगत् में जो कोई भी स्थान फलभोगके लिए नियत हैं, वे सब अनित्य ही हैं, यह बात सूत्रकार दिखलाते हैं- 'देवगंधव्वरक्खसा इत्यादि। शब्दार्थ-'देवा--देवाः' देवताः ‘गंधव्वरक्खसा-गंधर्वराक्षसाः' गंधर्व राक्षस आदि तथा 'असुरा-असुराः' असुर 'भूमिचरा--भूमिचराः भूमिपर चलनेवाले 'सरीसिवा--सरिसृपाः' सरक कर चलनेवाले सादि 'राया-राजानः' राजा 'नरसेटिमाहणा--नरश्रेष्ठिब्राह्मणाः' मनुष्य, नगरशेठ और ब्राह्मण 'तेवि--तेपि वे उपयुक्त देवादिसब 'दुक्खिया-दुःखिताः' दुःखित होकर 'ठाणा-स्थानानि' अपने अपने स्थानोंको ‘चयंति-त्यजन्ति' छोडते हैं ॥५॥ -अन्वयार्थ___'देवा देवता, गन्धर्व,राक्षस, असुर, भूमिचर, सरीसृप-सर्प आदि राजा, सामान्यनर, सेठ, ब्राह्मण, इत्यादि सभीदुःखित हो कर अपने अपने स्थानोंको त्यागते हैं। अर्थात् वे अपने स्थान त्याग करते समय अवश्य दुःखी होते हैं, परन्तु स्थानका त्याग तो करना ही पड़ता है ॥५॥ આ જગતમાં કર્મનું ફળ ભેગવવા માટે જે કઈ સ્થાને નિયત થયેલાં છે, તેઓ अनित्य ४ छ, से वात वे सूत्र२ अट ४२ छ. "देवगधव्वरक्खसा" त्याह .. शहाथ-'देवा-देवाः' हेवता 'गंधव्वरक्खसा-गंधर्व राक्षसाः' मधव राक्षस विगेरे तथा 'असुरा-असुराः' असुर 'भूमिधरा-भृमिचराः' भीन ५२ यासा वा 'सरीसिवा-सरिसृपाः' स२४ी ने यातवा वाणा सप विगेरे 'राया-राजानः' 01 'नरसेहि महणा नरश्रेष्ठिब्राह्मणाः' मनुष्य, नगर8, मन माझा 'तेवि-तेपि ते ५२ प्रमाणे हेव विगेरे मा 'दुक्खिया-दुःखिताः' हुमत छन 'ठाणा-स्थानानि' पात पाताना स्थानने 'सयति-त्यजन्ति' छ। छ. ॥५॥ सूत्राथ हेवता, अन्य, राक्षस, ससुर, भूभिय२, सरीसृ५ (सप माहि) २१, सामान्य નર, શેઠ, બ્રાહ્મણ આદિ સૌ કઈ પિોત પોતાના સ્થાનનો ત્યાગ કરતાં દુઃખી થાય છે, પરન્તુ તે સ્થાને તેમણે ત્યાગ તે કરવું જ પડે છે, પા શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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