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________________ २३४ सूत्रकृताङ्गसूडो -टीका 6 अगार ' - मिति अगारं गृहम् तस्मिन् 'आवसंतावि' आवसन्तोऽपि वासं कुर्वन्तोऽपि । अत्र अगारपदं गृहमध्ये विद्यमान कलत्रपुत्रादीनामुपलक्षणत्वात् मञ्चाः क्रोशन्तीतिवत् लाक्षणिकम् । तथाचाऽगारे वसन्तः कलत्रपुत्रादिना सह वासं कुर्वन्त इत्यर्थः संपद्यते । तदुक्तम् - " न गृहं गृहमित्याहुगृहिणी गृहमुच्यते " | इति नीत्या गृहे स्थित इत्यस्य गृहस्थितपुत्रभार्यादिषु स्नेहं कुर्वाणा इत्यर्थः संपद्यते । 'आरण्णावावि, इति आरण्यावापि अरण्ये निवसन्तोऽपि तापसाः वानप्रस्था इति यावत् । तथा 'पव्वया' प्रव्रजिताः सन्न्यासिन इत्यर्थः । अथवा ' पार्वताः ' इतिच्छायापक्षे पर्वतवासिनः । एषु ये केचन ' इदं दर्शनम् ' आवण्णा' आपन्ना प्राप्ताः सन्तः ' सव्वदुक्खा ' सर्वदुःखात् - सर्वेभ्यः सांसारिकदुःखे - भ्यः ' विमुच्चइ' विमुच्यन्ते-विमुक्ता भवन्ति । -: टीकार्थः -- अगार का अर्थ है घर । यहाँ अगार पद गृह में रहने वाले पत्नी पुत्र आदि का सूचक हैं । "माचे शोर कर रहे हैं" इसके समान यह एक orefron कथन है । अतएव " घर में रहते हूए का अर्थ है कलत्रपुत्र आदि के साथ निवास करते हुए । कहा भी है “न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते इत्यादि । "गृह गृह नहीं कहलाता, वास्तव में गृहिणी गृह कहलाती है" । इस कथन के अनुसार गृह में स्थित का अभिप्राय है गृह में स्थित पुत्र पत्नी आदि पर स्नेह करते हुए | अरण्य का अर्थ है अरण्य-वन में निवास करने वाले वानप्रस्थ भी कहलाते हैं । प्रव्रजित संन्यासी को कहते हैं " पव्वया" पाठ है उसका अर्थ पार्वत अर्थात् पर्वतवासी भी हो । શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૧ तापस या मूल में जो सकता है । ટીકા " अगार" या पहनो अर्थ गृह थाय छे. अहीं अगर यह घरमा रहेनारा पत्नी, पुत्र माहिनु सून्य छे, “भांगो (भायडो) मोसे छे," मा स्थनना देवु या साक्षणि થન છે. તેથી ઘરમાં રહેનારા ના અથ આ પ્રમાણે સમજવા “પુત્ર, પુત્રી, પત્ની આદિની साथै निवास उश्तो” ह्युं छेडे "न गृह गृहमित्याहु: " त्यादि “ઘરને ગૃહ કહેવાતું નથી, વાસ્તવિક રૂપે તે ગૃહિણીને જ ગૃહ કહેવાય છે,” આ થન અનુસાર ઘરમાં રહેતા” એટલે પુત્ર, પુત્રી, પત્ની આદિ પર સ્નેહભાવ રાખતા” “आरएय” भेटले वन. याने "आरएय" भेटले वनमां निवास पुरनार, तेने तापस अथवा वानप्रस्थ या अडे छे. सन्यासीने 'अमित' हे छे. भूण सूत्रभां ने "पव्वया" આ પદ વપરાયુ છે. તેના અથપાત એટલે કે પર્વતવાસી પણ થઇ શકે છે.
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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