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________________ ९०२ आचारांगसूत्रे वनानि वा-वनोद्भवान् शब्दान् ‘वणदुग्गाणि वा पन्वयाणि वा वनदुर्गान् वा-बनप्राकारोद्भवान् शब्दान्, पर्वतान् वा-पवतॊद्भवान् शब्दान् ‘पव्ययदुग्गाणि वा' पर्वतदुर्गान् वापर्वतोदभवान् शब्दान् ‘पवयदुग्गाणि वा' पर्वतदुर्गान् वा-पर्वतीयप्राकारोद्भवान् शब्दान् 'अन्नयराई वा तहप्पगाराई' अन्यतरान् वा-तदन्यान् वा तथाप्रकारान् कच्छप्रभृतिसमुद्भवान् 'सदाई' शब्दान् ‘कण्णसोयणपडियाए' कर्णश्रवणप्रतिज्ञया-कर्णश्रवणेच्छया श्रोतुं 'नो अभि संधारिजा गमणाए' नो अभिसंधारयेद्-मनसि कल्पयेत् गमनाय-गन्तुं संकल्पं न कुर्यात् 'से भिक्खू वा भिक्खुगी वा' स पूर्वोक्त भिक्षुः साधुः तथा भिक्षुकी-साधी 'अहावेगइ. अर्थातू नदी से घिरे हुए वनमें उत्पन्न शब्दों का या 'णूमाणि वा' वृक्षों से उत्पन्न शब्दों को या 'गहणाणि वा' सघन वन में उत्पन्न शब्दों को 'वणाणि वा' वन में उत्पन्न शब्दों को या 'वनदुग्गाणि वा' वन के प्राकार अर्थात जंगल के परकोटे (किला) में उत्पन्न शब्दों को या 'पव्वयाणि वा' पर्वतों में उत्पन्न शब्दों को या 'पव्वयदुग्गाणि वा' पर्वतीय प्राकार में उत्पन्न शब्दों को अर्थात् पर्वत के उपर या अन्दर गुफा में बनाये हुए किले में उत्पन्न शब्दों को, या 'अण्णयराइं तहप्पगाराई विरूवरूवाई सद्दाणि' इस प्रकार के दूसरे भी शब्दों को एवं कच्छादि उपर्युक्त स्थानों के शब्दों को 'कण्णसोयणपडियाए' कानों से सुनने की इच्छा से 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' दूसरे बाहर किसी भी स्थान में नहीं जाना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के कच्छ प्रभृति स्थानों में उत्पन्न शब्दों को सुनने की आसक्ति बढ जाने से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालन करनेवाले साधु और साध्वी को इस प्रकार के कच्छादि समुद्भव शब्दों को सुनने का मन में संकल्प या विचार भी नहीं करना चाहिये। अब फिर भी प्रकारान्तर से अन्य प्रकार के शब्दों को नहीं सुनना चाहिये शहीने मथ। 'गहणाणि वा' सघनवनमा यता हो अथवा 'वणाणि वा' पनमा यता होने अथवा 'वणदुग्गाणि वा' बननी ४२ना प्रा४२ अर्थात् सन Hearti यता होने अथवा 'पव्वयाणि वा' ५ोभा यता होने अथवा 'पव्वयदुग्गाणि वा' પર્વતીય કિલામાં થતા શબ્દોને અર્થાત્ પર્વતની ઉપર કે અંદર ગુફામાં બનાવેલ કિલામાં थता होने अथवा 'अन्नवराई तहप्पगाराई विरूवरूवाई सदाणि' । ५४२ मत ५९ २४ २५२ ४२७६ ७५२।४त स्यानाना शहाने 'कण्णसोयणपडियाए नो अभिसंधारिजा गमण:ए' तिथी समपानी २४थी महान ७५५५ स्थानमा नही. કેમકે-આ પ્રકારના કચ્છ વિગેરે સ્થાનમાં થતા શબ્દોને સાંભળવાની ઇચ્છા થવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમપાલન કરવાવાળા સાધુ અને સાધ્વીએ આવા પ્રકારના કચ્છાદિમાં થતા શબ્દોને સાંભળવાને મનમાં સંકલ્પ કે વિચાર પણ કરે નહીં ५Nथी मन्य हाना हान ५५५ न सानु ४थन ४3 2.-'से भिक्खू वा श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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