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________________ ममें प्रकाशिका टीका अतस्कंध २ सू. २ अ. ११ शब्दसक्तिनिषेधः सरांसि वा-सरः समुद्भवान् वा शब्दान् 'सागराणि वा' सागरान् वा-सागरोद्भवान् वा शब्दान् ‘सरसरपंतियाणि वा' सरःसरःपक्तिकानि वा-सरपङ्क्तिपरम्परोद्भवान् वा शब्दान् 'अन्नयगई वा तहप्पगाराई' अन्यतरान वा तदन्यान् वा तथाप्रकारान्-वप्रादिसमुद्भवान् ‘विरूवरूवाई' विरूपरूपान्-नानाविधान् 'सदाई' शब्दान् 'कण्णसोयणपडियाए' कर्णश्रवणप्रतिज्ञया-कर्णश्रवणेच्छया श्रोतुम् 'नो अभिसंधारिजा गमणाए' नो अभिसंधारयेद्-मनसि संकल्पयेद् गमनाय-गन्तुम्, ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'अहावेगइयाइं सदाइं सुणेई' यथा वा एक कान् शब्दान् शगोति 'तं जहा-कच्छाणि वा णूमाणि वा' 'कच्छान् वा-कच्छोद्भवान् नद्यावृत्तवनोद्भवान् शब्दानित्यर्थः, वृक्षान् वावृक्षोद्भवान् वा शब्दान् ‘गहगाणि वा वगाणि वा' गहनानि वा-सघनवनोद्भवान् शब्दान् , को अर्थात् नाली या नालाओं से उत्पन्न होनेवाले शब्दों को या 'सागराणि वा सरपंतियाणि वा सर-तालाव से उत्पन्न शब्दों को या अनेक कतार में बन्हें हुए तलाव या नहर वगैरह के शब्दों को या समुद्र के तरङ्गों से उत्पन्न शब्दों को या 'अण्णयराइं तहप्पगाराई विख्वरूवाई' इस प्रकार के नाना प्रकार के 'सदाणि' शब्दों को 'कण्णसोयणपडियाए' कानों से सुनने की इच्छा से 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' कहीं भी बाहर स्थान में जाने के लिये मन में संकल्प या विचार भी नहीं करे क्योंकि इस प्रकार के शब्दों को सुनने की आसक्ति बढ जाने से संयम की विराधना होगी इसलिये शब्द श्रवणार्थ कहीं पर नहीं जाय । ___ अब फिर भी दूसरे प्रकार के शब्दों को भी नहीं सुनना चाहिये यह बनलाते हैं-'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, अहावेगड्याई सद्दाइं सुणेई' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु मुनि महात्मा और भिक्षुकी साध्वी यदि वक्ष्यमाण रूप वाले एकैक शब्दों को सुने 'तं जहा' जैसे कि 'कच्छाणि वा कच्छ के शब्दों को शहोने मया 'सागराणि वा' सश१२ माथी थता । न मया 'सरसरपंतियाणिवा' અનેક લઈનબદ્ધ સરોવરની પંક્તિમાં થતા શબ્દને અથવા નહેરના શબ્દોને અથવા 'अन्नयराई तह पगाराई विरुवरूवाइं सदाणि' भाव ४२ना अनेते पन्न यता शण्डोन 'कण्णसोयणपडियाए' नाथा सानदानी २७थी 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' ५९y બહારના સ્થાનમાં જવા માટે મનમાં સંક૯પ કે વિચાર પણ કરે નહીં કેમકે આ પ્રકારના શબ્દને સાંભળવાની આસકિત થવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે તેથી કોઈ પણ જાતના શબ્દો સાંભળવા માટે જવું નહીં, शशी शहोने न स विष प्रा-२थी ४थन ४२छे.-'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पति संयमशील साधु मन सी 'अहावेगइयाई सदाई सुणेह' ले १क्ष्यमा शते २४ २४ होने सनणे 'तं जहा' भो-'कच्छाणि वा' ४२७॥ होने मात् नहीथी ३२ये वनमाथी पन्न यता साने. 24 ‘णूमाणि वा' माथी यता श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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