________________
मर्मप्रकाशिका टोका श्रुतस्कंध २ ३. १ ० ७ पञ्चमं वस्त्रैषणाभ्ययननिरूपणम् ७१ परिधानादिकार्ययोग्यम्, स्थिरम्-दृढम्, धुवम् - चिरस्थायि, धारणीयम् --धारणयोग्यम् एवं रोच्यमानम्-गृहस्थेन श्रद्धया दीयमानं तवस्त्रं रोचते साधुः अभिलषति तर्हि 'तहप्प गारं वत्थं फासुर्य एसणिज्जं जाव पडिगाहिज्जा' तथाप्रकारम्-तथाविधम् अजीर्णशीर्णादिरूपं वस्त्रं प्रासुकम् अचित्तम्-आधाकर्मादिदोषरहितम् यावद् मन्यमानः प्रतिग्रहीयात् । अथ पुनरपि प्रसनक्शाद् वस्त्रैषणामाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु भिक्षुकी वा 'नो नवर मे वत्थे तिकट्टु' नो नवम्-नूतनम् मे-मम साधोः वस्त्रं वर्तते इति कृत्वा 'नो बहुदेसिरण सिणाणेण वा कक्केण वा जाव पधंसिज्जा' नो बहुदैशिकेन-किञ्चिद् बहुना स्नानेनस्नान साधनपलपुलादिना वा कर्केण वा-स्नानीयपात्रविशेषेण यावत्-लोभ्रेण वा चूर्णेन वा तद्वस्त्रं प्रघर्षयेत्, तथासति संयमविराधना स्यात् ‘से भिक्खू वा भिक्खुणो वा' स भिक्षुर्वा गया भी है और 'रोइज्जतं रुच्चह' साधु को भी पसन्द करने योग्य है इसलिये इस प्रकार के वस्त्र को 'फासुयं एसणिज्ज' प्रासुक-अचित्त और एषणीय आ. धाकर्मादि दोष से रहित 'जाच पडिगाहिज्जा' यावत् समझ कर साधु और साध्वी को ले लेना चाहिये। ___ अब फिर भी प्रसंग वश वस्त्रैषणा का ही प्रतिपादन करते हैं 'से भिक्खुवा भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु और भिक्षुकी यदि ऐसा विचार करे कि 'नो नबए मे वत्थेति कटूटु' मुझको नया वस्त्र नहीं है इसलिये 'बहु देसिएण सिणा णेण वा कुछ बहुत स्नान साधन भून सावुन वगैरह से तथा 'कक्केण वा जाव पघंसिज्जा' स्नानीय पात्र विशेष से एवं यावत् लोध से या चूर्ण से उस पुराने वस्त्र को घर्षण करलें सो नहीं घर्षण करना चाहिये क्योंकि घर्षण करने से संयम की विराधना होगी, इसलिये साधु को और माध्चो को संयम पालन करना मुख्य कर्तव्य होने से उस अपने पुराने वस्त्र को बहुमूल्यक सावुन वगैरह से घिस कर साफ सुथरा नहीं करना चाहिये इसी प्रकार प्रकारान्तर से भी अपने 'रोइज्जतं रुच्चइ' भने साधुये ५६ ४२वा वाय छे. 'तहप्पगारं वत्थं फासुर्य' 4॥
४॥२पक्षने सु४-पायित भने 'एसणिज्जं जाव पडिगाहिज्जा' मेषदाय ! દેથી રહિત યાવત્ ગ્રહણ કરવાને ચેપગ્ય સમજીને પ્રાપ્ત થાય તે ગ્રહણ કરવું તે भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयमशीय साधु मने सची 'नो नवए मे वत्थेत्ति कटु' ले भ विया२ ४३ 3-भारे न वस्त्र नथी. तेथी 'नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा' नाबाना साधन ३५ सामु विशेश्थी अथ 'कक्केण वा' नाना पाव विशेषयी 'जाव पघं सज्जा' तथा यावत् साथी 3 यू यथी ये ना बने घसी 4G ५ ते ते ઘસવું નહીં કેમ કે-વસને ઘસવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સાધુ અને સાવીને સંયમપાલન એ મુખ્ય કર્તવ્ય હોવાથી એ જુના વચને કીમતી સાબુ વિગેરિથી
श्री सागसूत्र :४