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आचारांगसूत्रे
नो प्रतिगृह्णीयाम् । अथ योग्यवस्त्रग्रहणविर्वि प्ररूपयति- ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु भिक्षुकी वा 'से जं पुण जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः जानीयात् 'अप्पंडं जाव अपसंता गं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्जतं रुच्चर' अल्पाण्डम् अण्डरहितम् यावत् अप्राणम् अबीजम् हरितादिरहितम् अल्पसन्तानकम् लूतातन्तुजालरहितम् एवम् अलम् -समर्थम् भी साधु को पसन्द नहीं है तो 'तहप्पगारं वत्थं' इस प्रकार के जीर्णशीर्ण फटे पुराने वस्त्र को 'अल्फासुयं अणेसणिज्जं जाव' अप्रासुक सचित्त एवं अनेषणीय आधाकर्मादि दोषों से यावत् युक्त समझकर साधु और साध्वी उस प्रकार के वस्त्र को 'नो पडिगाहिज्जा' ग्रहण नहीं करे क्योंकि इस से संयमकी विराधना होगी इसलिये संयमपालनार्थ नहीं लेना चाहिये ।
अब योग्य वस्त्र का ग्रहणविधि बतलाते हैं ' से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा से जं पुण एवं जाणिजा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से वस्त्र को जान ले कि यह वस्त्र 'अप्पंडं जाव अपसंताणगं' अल्पाण्ड अर्थात् अण्डों से रहित है एवं प्राणी जीव जन्तु से भी रहित है तथा अंकुर जनक बीजों से ही रहित तृण घास वनस्पति वगैरह से भी रहित हैं एवं उत्तिङ्ग छोटे छोटे कीडे मकोरे से भी रहित है और पनक चीटी पीपरी फनगे वगैरह से भी रहित हैं एवं जल मिश्रित गिली मिट्टी से भी रहित है तथा मकरे के जाल तंन्तु सन्तान परमा से भी रहित है ऐसा जान कर या देख कर तथा 'अलं थिरं' पहनने ओढने के लिये ही योग्य है तथा खूब मजबून भी है और 'धुं धारणिजं' ध्रुव चिर काल स्थायी भी है अत एव फटा पुराना भी यह वस्त्र नहीं है और गृहस्थ श्रावक के द्वारा आदर पूर्वक दिया અનેષણીય આધાકર્માદિ દોષોથી યુક્ત યાવત્ સમજીને સાધુ કે સાધ્વીએ એવા પ્રકારના વસ્ત્રને ગ્રહણ કરવું નહીં. કેમ કે તેવા પ્રકારના વસ્ત્ર લેવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે.
$वे योग्य वस्त्रने मेवानी विधि सतावे छे. - ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते वे उत संयमशीय साधु भने साध्वी 'से जं पुत्र एवं जाणिज्जा' ले वक्ष्यमाणु रीते वस्त्र भो है | 'अप्पंडे जाव अप्प संता गं' सांड अर्थात् डा विनातु छे तथा પ્રાણી છત્રજંતુથી પણ રહિત છે. અકુરજનક બીયા વિનાનુ છે. તથા લીલા તૃણુ ઘાસ વિગેરે વતસ્પતિ વિગેર વિનાનુ છે. ઉત્તંગ અર્થાત્ નાના નાના કીડી મકાડાથી પશુ રહિત છે. તથા પતંગ વિગેરે જીણી જીવાત વિનાનુ છે. અને જલ મિશ્રિત લીલી માર્ટિથી પણ વત છે. તથા મર્કાડાની જાળ તન્તુ પરંપરાથી પણ રહિત છે. આ प्रभा लगीने लेडने तथा पंडेरवा मोटवा भाटे 'अलं थिरं धुवं धारणिज्जं' चूम મજબૂત છે. તથા લાંબા સમય સુધી ટકે તેવુ... અર્થાત્ ધ્રુવ છે. તથા ફાટેલા કે જુનુ પણ આ વસ્ત્ર નથી. તથા ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા આદર ભાવ પૂર્વક આપેલ છે, તથા
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪