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________________ - - ७१२ आचारांगने भिक्षुकी वा 'नो नवए मे वत्थेत्ति कटु' नो नवम्-नूतनं परिधानयोग्यम् मे मम साधोः वस्त्रं वर्तते इति कृत्वा 'नो बहुदेसिएण' नो बहुदेशिकेन-किश्चिद् बहुना वा 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा-अधिकशीतोदकेन 'उसिणिोदगवियडेण वा' उष्णोदकविकटेन वाअधिकोष्णोदकेन 'जाव पहोइन्जा' यावत् उत्क्षालयेद् वा प्रक्षालयेद् वा तथाप्रक्षालने संयमविराधना स्यात्, ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'दुभिगंधे मे वत्थेत्तिकटु' दुरभिगन्धम्-दुर्गन्धयुक्तं मे मम साधोः वस्त्रं वर्तते इति कृत्या 'नो बहुदेसिएण' नो बहुदैशिकेन किश्चिद् बहुना वा 'सिणाणेण वा कक्केण वा जाव तहेव' स्नानेन वा-स्नानवस्त्र को प्रक्षालन नहीं करना चाहिये यह बतलाते हैं 'से भिक्खू वा, भिक्खुणी घा वह पूर्वोक्त भिक्षु और भिक्षुकी अर्थात् संयमशील साधु और साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से विचारे कि 'नो नवए मे वत्थे त्ति कट्टु' मुझको नया वस्त्र नहीं है इसलिये 'नो बहुदेसिएण सीओदगवियडेण वा' उस पुराने वस्त्र को शीतोदकादि से घर्षण कर साफ करलेना चाहिये या 'उसिणोदगवियडेण वा जाव' उष्ण उदक से साफ करलेना सो ठीक नहीं हैं क्योंकि अत्यन्त अधिक शीतोदक से तथा अत्यन्त अधिक उष्णोदक से 'जाव' एकबार तथा अनेक बार उस वस्त्र को प्रक्षालन नहीं करने से संयम की विराधना होगी, इसलिये 'पहोइन्जा' उस वस्त्रको शीतोदकादि से प्रक्षालित नहीं करे। फिर भी प्रसंगवश वस्त्रैषणा विधि को बतलाते हैं 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि विचार करे कि 'दुभि गंधे मे वत्थे त्ति कट्टु' मेरा वस्त्र दुरभि गन्ध अर्थात् दुर्गन्धि से भरा हुआ है इसलिये उस वस्त्र को ઘસીને સાફસુફ કરવા નહીં. એ જ પ્રમાણે અન્ય પ્રકારથી પણ પિતાના વસ્ત્રને જોવા ન नमे से विषे सत्र २ ४थन ४२ छे. 'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वरित संयम. शील साधु भने सानी 'नो नए मे वत्थेत्ति कटु' मा ५९ मापना२ शते पियारे 2 भारे न १ नथी. तेथी 'बहुदेसिएण सीओदगवियडेण वा' मा जुना पखने पाणी विश्थी अथवा 'उसिणोदगवियडेण वा' गरम पाणीथी 'जाव पहोइज्जा' सीन સાફ કરવું જોઈએ. તે બરાબર નથી. કેમ કે અત્યંત વધારે ઠંડા પાણીથી તથા અત્યંત વધારે ગરમ પાણીથી એકવાર કે અનેકવાર એ વસને છેવાથી સંયમની વિરાધના થાય छ. तेथी ये वस्त्र शीतsuथा धो नही. से भिक्ख वा भिक्खुशी वा' ते पूर्वात सयमा स'धु मने सामने सभ विया२ ४२ 'दुभिगंधे मे वत्थेत्ति कटु' भा३ १ थी मरेख छ. तेथी साई ४२ २४ ५५४ ते विया२ म२।१२ नथी. है है 'नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा दुध વાળા વસ્ત્રને બહુદેશિક અર્થાત્ અત્યંત મેઘા સ્નાનના સાધન રૂપ સાબુથી અથવા 'ककेग वा' सत्यत भांबा नानीय पात्र विशेषथी 'जाव तहेव' तया यात दोपथी तया श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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