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आचारांगसूत्र प्रत्याचक्षीत नवरम्-पूर्वोपेक्षया विशेषस्तु 'मा एयं तुमं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणी. ओदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा 'उच्छोलेहि वा पहोले हि वा' उत्क्षालय वा प्रक्षालय वा 'अभिकखसि मे दाउं सेसं तहेव' अभिकाङ्क्षसि-३च्छसि चेत् त्वं मे-मा साधवे वस्त्रं दातुम् तर्हि शेष तथैव-पूर्वोक्तरीत्येव एवमेव-शीतोदकादिना प्रक्षालनं विनैव देहि इत्यर्थः 'जाव नो पडिगाहिज्जा' यावत्-तस्य एवं वदतः साधोः परो यदि शीतोदकादिना प्रक्षाल्यैव ददाति तर्हि तथाप्रकारं वस्त्रम् अप्रामुकम् अनेषणीयं मन्यमान: साधुः लाभे सत्यपि नो प्रतिगृह्णीयात् ।। ____ अथ पुनरपि वस्त्रैषणाविधि प्ररूपयितुमाह-'से णं परो नेता वइज्जा' अथ खलु परो नेता यहाँ पर विशेषता यही है कि-हे आयुष्मन् ! 'मा एयं तुमं वत्थं तुम इस वस्त्र को अत्यन्त 'सीयोदवियडेण वा' उत्कट शीतोदक से तथा 'उसिणीओदगवियडेण वा' तथा अत्यन्त उत्कट उष्णोदक से 'उच्छोलेहि वा पहोलेहि वा' एकबार या अनेकबार प्रक्षालित नहीं करो यदि तुम मुझको यह वस्त्र देना चाहते हो तो शेष तथैव अर्थात् पूर्वोक्त रीति के अनुसार ही शीतोदक या उष्णोदक से प्रक्षालन के बिना ही दे दो, इस तरह 'जाव नो पडिगाहिज्जा' यावतू-उस साधु को कहने पर वह पूर्वोक्त गृहस्थ नेता पुरुष उस वस्त्र को अप्रासुक-सचित्त
और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझते हुए मिलने पर भी उस प्रक्षालित वस्त्र को नहीं लेना चाहिये, अन्यथा शीतोदकादि से प्रक्षालित वस्त्र को लेने पर संयम की विराधना होगी, इसलिये संयमनियम व्रत का परिपालन करने वाले साधु और साध्वी को इस तरह के प्रक्षालित वस्त्र संयम का विराध होने से नहीं लेना चाहिये।
अब फिर भी वस्त्रैषणा विधि का हो निरूपण करते हैं-'से णं परो नेता ४५न प्रमाणे ४ सभा ५२'तु 'नवर' ११ मडी या विशेषता से छे 3-3 मायुमन् ! 'मा एवं तुम वत्थं सीओदगवियडेण वा' तमे ॥ पक्ष सत्यत 1 lal मथ। 'उसिणीओदगवियडेग वा' २मत्यत १२म पाथी 'उच्छोलेहि वा पच्छोलेहि वा' २४॥२ ५५॥ भने ४५।२ । नही . 'अभिकंखसि मे दाउ' ने तमे भने । पत्र म॥५१॥ २७॥ तो 'सेसं तहेव जाव' पूर्वरित ४थन प्रमाणे शीता था। ઉષ્ણદકથી ધોયા વિના જ આપે એ રીતે સાધુએ કહેવા છતાં તે ગૃહસ્થ પુરૂષ એ વસ્ત્રને શીદકથી જોઈને જ જે સાધુને આપવા ઇચછે તે એ વસ્ત્રને અપ્રાસુક-સચિત भने मनेपदीय भाषामा होषावाणु समझने भणे तो 'नो पडिगाहिज्जा' से વસ્ત્ર લેવું નહીં નહીંતર શીદકાદિથી ધેયેલ વસ્ત્ર લેવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમ નિયમ નું પરિપાલન કરવાવાળા સાધુ અને સાવીએ આ રીતના ધોયેલ વસ્ત્ર સંયમના વિરાધક હેવાથી લેવા નહીં.
श्री सागसूत्र :४