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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. १ सू० ६ पञ्चमं वस्त्रैषणाध्ययननिरूपणम्
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गृहस्थप्रमुखः वदेत्- 'आउसोत्ति वा भगिणित्ति वा' आयुष्मन् ! इति वा, भगिनि ! इति वा, इत्येवंरूपेण संबोध्य 'आहरेयं वत्थं ' आहर - आनय, एतद् वस्त्रम्, अस्मिन् वस्त्रे 'कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोहित्ता' कन्दानि वा यावद् - मूलानि वा हरितानि वा विशोध्य ततः कन्दादि विशोधनानन्तरम् तद् वस्त्रम् 'समणस्स णं दाहामो' श्रमणस्य श्रमणाय साधवे खलु दास्यामः, 'एयपगारं निग्घोसं सोच्चा निसम्म तहेव' एतत्प्रकारम् - उपर्युक्तरूपं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य तथैव - पूर्वोक्तरीत्यैव स साधुः वस्त्रग्रहणात् प्रागेव आलोचयेत् आलोच्य प्रत्याचक्षीत, प्रत्याख्यानप्रकारमाह- 'नवरं मा एयाणि तुमं कंदाणि वा जाव विसोहेहि' नवरम् - पूर्वापेक्षया विशेषस्तु मा एतानि त्वं कन्दानि वा यावद् मूलानि वा हरितानि इज्जा आउसोति वा, भगिणित्ति वा, अथ-यदि कोई गृहस्थ श्रावक प्रमुख अपने सम्बन्धी को बोले कि हे आयुष्मन् ! हे भगिनि ! 'आहरेयं वत्थं' इस तरह सम्बोधन करके कहेकि इस वस्त्र को लेआओ, क्योंकि इस वस्त्र में से 'कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोहित्ता' कन्दों को अर्थात् मूलों को या हरितों को विशोधन कर अर्थात् उस वस्त्र में कदाच धोखा से कन्द मूल वगैरह तो नहीं रह गये हैं ? इस प्रकार अच्छी तरह उस वस्त्र को संशोधन कर 'समणस णं दाहामो श्रमण साधु साध्वी को देना है ऐसा कहने पर वह साधु 'एयप्पगारं णिग्घोस सोच्चा निसम्म' इस प्रकार के उपर्युक्त रूप निर्घोष - शब्द को सुन कर और हृदय में विचार कर 'तहेव' पूर्वोक्त रीति से ही वह संयमशील साधु वस्त्र को लेने से पहले ही पर्यालोचन कर अर्थात् विचार कर उस वस्त्र का प्रत्याख्यान करदें याने इनकार करदें, अर्थात् उस प्रकार के वस्त्र को नहीं ग्रहण करें, प्रत्याख्यान करने का तरीका बतलाते हैं- 'नवरम्' इत्यादि, पूर्वकी अपेक्षा यहाँ पर विशेषता यही है कि -'मा एयाणि तुमं कंदाणि वा जाव विसोहेहि' तुम इन कन्द मूल हरित वस्तुओं को नहीं शोधित करो अर्थात् कन्दादि को मत हटाओ,
'से णं परो नेता वइज्जा' ले होई गृहस्थ श्राद्ध नेता पोताना संधीने हे 'आउसोत्ति वा भगिणित्ति वा' हे आयुष्मन् अथवा हे मडेन ! 'आहरेय' वत्थं' म वस्त्रने समावे। 'कंदाणि वा जाव हरियाणि वा मे वस्त्रां होने है भूणोने अथवा हरिताने 'विसोहित्ता' विशोधन पुरीने 'समणस्स णं दाहामो' श्रम अर्थात् साधुने हेवु छे. 'एयप्पगार' णिग्घोसं सोच्चा' ते साधु या रीते गृहस्थना उथनने सांलजीने मने 'निसम्म' हृयभां वियारीने 'तहेव' पूर्वोक्त उधन प्रमाणे ते साधुये मे वस्त्र लेता પહેલાં જ વિચાર કરીને એ વસ્ત્ર લેવાનું ના કહી દે. અર્થાત્ એ પ્રકારના વસ્ત્રને ગ્રહણ कुरखा नहीं' हैवी रीते ना पाडवी छे सूत्रधार हे छे. 'नवर' पूर्व प्रथम कुरतां सही विशेषता ये छे - मा एयाणि तुमं कंदाणि जाव विसोद्देहि' तमे । ४४ भूण हरित वस्तुनि शोषण, अर्थात् धाहिने उबारा नहीं' 'नो खलु मे कम्पइ एयपगार'
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪