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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० ६ पञ्चमं वस्त्रैषणाध्ययननिरूपणम् ७१ सम्प्रति पुनः प्रकारान्तरेण वस्त्रैषणाविधि प्ररूपयितुमाह-'से णं परो नेता वइज्जा' अथ खलु परो नेता गृहस्थप्रमुखः वदेत 'आउसोत्ति ! भगिणित्ति ! वा' आयुष्मन् ! इति वा भगिनि इति वा, इत्येवंरीत्या सम्बोध्य 'आहर एयं वत्थं' आहर-आनय एतद् वस्त्रम् 'सीओदगवियडेण वा' शीतोदकविकटेन वा 'उसिणीओदगवियडेण वा' उष्णोदकविकटेन वा 'अन्छोलेत्ता वा पहोलेत्ता वा' उत्क्षाल्य वा-किश्चित् प्रक्षालनं कृत्वा प्रक्षाल्य वा-अधिक प्रक्षालनं वा कृत्वा 'समणस्स णं दाहामो' श्रमणस्य श्रमणाय साधव खलु तद्वस्त्रं दास्यामः 'एयप्पगारं निग्योसं सोच्चा निसम्म' एतत्प्रकारम्-उपयुक्तरूपं निर्घोष श्रुत्वा निशम्य-हदि अवधार्य तहेव 'नवरं' तथैव-पूर्वोक्तरीत्यैव स साधुः वस्त्रग्रहणात्प्रागेव आलोचयेत् आलोच्य इस तरह के उपर्युक्त वस्त्र को संयम पालन करने वाले साधु और साध्वी को नहीं लेना चाहिये । अब फिर भी प्रकारान्तर से वस्त्रैषणा विधिका ही निरूपण करते हैं-'से णं परो नेता वइज्जा आउसात्ति वा, भगिणि त्ति वा' यदि कोई पर दूसरा गृहस्थ नेता प्रमुख किसी अपने सम्बन्धी पुरुष को ऐसा वक्ष्यमाण रीति बोले कि-हे आयुष्मन् ! पुरुष ! और हे भगिनि ! बहन ! 'आहर एयं वत्थं सी. योदगवियडेण वा' तुम इस प्रकार के वस्त्र को अत्यन्त उत्कट शीतोदक से या 'उसिणीओदगवियडेण वा अत्यन्त उत्कट उष्णोदक से 'उच्छोलेत्तावा' एकबार या 'पहोलेत्ता वा' अनेकवार प्रक्षालन करके खूब साफ सुथरा करके लेआओ वह प्रक्षालित वस्त्र 'समणस्स गं दाहामो इन जैन साधु महात्मा को देना है 'एयप्पगारं णिग्योसं सोच्चा निसम्म' इस प्रकार के निर्घोष-शब्द को सुनकर और हृदय में विचार कर वह साधु 'तहेव' तथैव -पूर्वोक्त रीति के अनुसार ही वस्त्र को ग्रहण करने से पहले ही विचार कर उस प्रक्षालित वस्त्र को लेने से इनकार कर दे इस तरह पूर्वोक्त की तरह ही सब समझ लेना किन्तु केवल नवरं સહિત હોવાથી તે લેવાથી સંયમની વિરાધના થવાની સંભાવના રહે છે. તેથી આ રીતના ઉપરોક્ત વસ્ત્રને સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુ અને સાધ્વીએ લેવા નહીં. रा-त२थी पवैष। विधिनु (न३५१ ४२.- ‘से णं परो नेता वइज्जा' જે કઈ બીજે ગૃહસ્થ નેતા મુખ્ય વ્યક્તિ કોઈ પિતાની સંબંધી વ્યક્તિને આ વસ્યभाए रीते , 'आउसोत्ति वा भगिणित्ति बा' 3 मायुमन् ! २५२।। माडन ! 'आहर एयं वत्थं सीओदगवियडेण वो' ! वखने ४६म । पाथी अथवा 'उसिणी. ओदगवियडेण वा' ५ ॥२५ पाथी 'उच्छोलेता वा पहोलेत्ता वा' ४वार 2 सने वार घा भूम सासु ४रीने सात घायद वर 'समणस्स णं दाहामो' मा साधुलने भावानु छ. 'एयप्पगारं णिग्योसं सोच्चा' 241 रने श५४ सांसजीन 'निसम्म' भने यमा पियार ४शन ते साधुसे तहेव' पूर्वात शत प्रमाणे ४ १२ खेत पडलi ar વિચાર કરીને એ ધેયેલ વસ્ત્રને લેવાની ના કહી દેવી. આ રીતે સમગ્ર કથન પૂર્વોક્ત श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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