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आचारांगसूत्र चूर्णेन वा आघर्षय वा प्रधर्षय वा-स्नानादि सुगन्धद्रव्यचूर्णादिना किश्चिद् अधिकं वा घर्षणं कृत्वा वस्त्रं मा देहि, 'अभिकखसि मे वत्थं दाउं एमेव दलयाहि' अभिकाङ्क्षसि यदि त्वं मे मह्यं वस्त्रं दातुम् तर्हि एवमेव-स्नानीय चूर्णादिना घर्षणम् अकृत्वेत्यर्थः देहि ‘से से वयंतस्स परो सिणाणेण वा कक्केण वा जाव पपंसित्ता दलइज्जा' अथ तस्य-साधोः, एवम्उक्तरीत्या बदतोऽपि यदि परः गृहस्थः स्नानेन वा-स्नानीय सुगन्धद्रव्येण, कर्वेण वास्नानसाधनपात्रविशेषेण यावद्-लोभ्रेण वा चूर्णेन वा-स्नानीयामलकादि चूर्णद्रव्येण आघj वा प्रसंघj वा दद्यात् तर्हि 'तहप्पगारं वत्थं' तथाप्रकारम्-तथाविधम् स्नानादि चूर्णादिना प्रघर्षितं वस्त्रम् 'अप्फासुयं अणेसणिज्ज जाव णो पडिगाहिज्जा' अप्रामु कम्-अचित्तम्, अनेषणीयम्-आधाकर्मादिदोषसहितं यावद मन्यमानो लाभे सत्यपि नो प्रतिगृह्णीयात, तथाविधस्य वस्त्रस्य पश्चात्कर्मसहितत्वात् तद्ग्रहणे संयमविराधना संभवात् । यावत् 'पघंसाहि वा' लोध्र से या चूर्ण विशेष से एक बार या अनेकवार आघर्षण प्रघर्षण कर वस्त्र नहीं दे 'अभिकखसि मे वत्थं दाउं' यदि तुम मुझको वस्त्र देना चाहते हो तो 'एमेव दलयाहि विना घर्षण प्रघर्षण के ही देदो 'से सेवं वयंतस्स' इस प्रकार से बोलते हुए उस साधुकी बात सुनकर भी 'परो सिणाणेण वा कक्केण वा जाव' वह गृहस्थ श्रावक यदि स्नानीय चूर्णादि से 'पघंसित्ता दल. इज्जा' आघषण प्रघर्षण करके ही साधु को वस्त्र देवे तो 'तहप्पगारंवत्थं इस प्रकार के स्नानादि चूर्ण से आघर्षित प्रघर्षित किया गया वस्त्र को 'अप्फासुयं अणेसणिजं जाय णो पडिगाहिजा' मिलने पर भी साधु और साध्वी उस स्नानादि चूर्ण से आघर्षित प्रघर्षित वस्त्र को नहीं ले क्योंकि इस प्रकार का आधर्षित प्रघर्षित वस्त्र को लेने से संयमकी विराधना होगी क्योंकि इस तरह का वस्त्र अमासुक सचित्त और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त माना जाता है अर्थात् इस प्रकार के स्नानीय चूर्ण द्रव्यादि से आधर्षित प्रघर्षित वस्त्र पश्चात् कर्म सहित होने से उस को लेने पर संयम की विराधना होने की संभावना रहती है। इसलिये અર્થાત્ ચૂર્ણ વિશેષથી એક કાર અથવા અનેકવાર આઘર્ષણ છઘર્ષણ કરીને વસ્ત્ર ન माया 'अभिकखसि मे वत्थं दाउ' से तमे भने २ख मावा छिता हो तो 'एवमेव दलयाहि' ३ . प्रधए या विना मेमने सेभ माथी हो से सेवं वयं तस्स' मा प्रमाणे ४ा ते साधुनी id सामजीने ५९'परो सिणाणेण वा कक्केण वा' ते स्थ श्रा ने नान ४२वाना यू विणेथी 'जाव पघसित्तो' माघष प्र३ ४शन । 'दलइज्जा' साधुने पत्र मापे तो 'तहप्पगार वत्थं अप्फोसुय अणेसणिज्ज' ते॥ प्राथी અર્થાત્ સ્નાનાદિ ચૂર્ણથી આઘર્ષિત પ્રઘર્ષિત કરેલ વસ્ત્ર અપ્રાસુક-સચિત્ત અને અનેકણીય माया होयी युटत डोवाथी 'जाव णो पडिगाहिज्जा' ते साधुसे प्राप्त था तो પણ ગ્રહણ કરવું નહીં કેમ કે આવી રીતનું આઘર્ષિત પ્રષિત વસ્ત્ર પશ્ચાત્ કર્મ
श्री सागसूत्र :४