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________________ आचारांगसूत्रे स्यात, प्रपनितो वा स्यात् 'से तत्थ पयडेमाणे वा पवलेमाणे वा तस्य खलु साधोः तत्रनस्याम् मलमूत्रपरिष्ठापनभूमौ प्रस्खलतो वा प्रपततो वा 'हत्थं या पायं वा हस्तो वा पादो चा 'जाव लूसेज या' यावत्-शिरो वा मुखं वा लूपयेद् वा त्रुटयेत् 'पाणाणि वा भूयाणि वा' प्राणिनो वा भूतानि या 'जीवाई वा सत्ताई वा जीवान् वा सत्वानि वा 'ववरोविज्जा' व्यप रोपयेद्-हिंस्यात्, तन्न युक्तमित्याह- 'अह भिक्खूणं पुत्रोवदिवा एस पइण्णा' अथ भिक्षुणां साधूनां कृते पूर्वोपदिष्टा-तीर्थकदुक्ता एषा प्रतिज्ञा आदेशः आज्ञा वर्तते जं पुवामेव पण्णस्स उच्चारपासवणभूमि पडिलेहिज्जा' यत् पूर्वमेव-मलमूत्रपरिष्टापना त्यागेव प्राज्ञस्य साधो रिदमावश्यकं यत् 'उच्चारपासवणभूमि' उच्चारप्रस्रवणभूमिम्-मलमूत्रप्रक्षेपस्थान प्रति लिखेत्-पश्येत् ॥६०॥ स्तम्भ वगैरह से टकरा कर गिरजायगा और 'से तत्थ पयलेमाणे या पथडेमाणे वा हत्थं वा, पायं वा, जाव लूसेज्ज वा' चह पूर्वोक्त साधु उस मलमूत्रादि परित्याग स्थान में स्तम्भादि से टकरा कर प्रस्खलित होता हुआ तथा गिरता हुआ अपने हाथ को या पाद को या यावत् शिरमस्तक को या मुखको तोड डालेगा अर्थात् हाथ पांव टूट जायेगा और 'पाणाणि चा भूयाणि चा, जीवाइंया, सत्ताई वा, ववरोविजा' प्राणीभूत जीव सत्वों को भी मारेगा इस प्रकार अनेकों कर्म बंधन के कारण उपस्थित होगे सो ठीक नहीं है क्योंकि साधु मुनि महात्मा कर्म बंधन से छुटकारा पाने के लिये ही संयम पालन करना परमावश्यक समझते है 'अह भिक्खूणं पुव्योचदिट्ठा एस पहण्णा' इसलिये भिक्षुकों के लिये पहले ही वीतराग भगवान् महावीर प्रभुने ऐसी प्रतिज्ञा बतलायी है अथवा आदेश दिया है कि 'जं पुव्वामेव पण्णस्स उच्चारपासवणभूमि' प्राज्ञ संयमशील साधु को मलमूत्रादि को परित्याग करने से पहले ही मलमूत्रादि परित्याग स्थान 23२४ ५ मने से तत्थ पयलेमाणे पण्डेमाणे वा ते पूवात साधुसे भलभूत्रा ना त्या ४२पाना स्थानमा ८४२राउन मसित थाय 4441 4 14 तो 'हत्थं या पाय वा जाय लूसेज्ज वा' पोताना लाथने मय पाने यापत् माथाने 424 भुमन तोड नाम अर्थात् साथ ५५ तूट नसे. तथा 'पाणाणि वा भूयाणि वा जीवाई चा सत्ताईवा' प्राणीय-सूत- मने सत्वाने ५५ ववरोविज्जा' भारशे मा शत भने। કમબંધનના કારણે ઉપસ્થિત થશે એ ઉચિત નથી. કેમ કે સાધુ મુનિ મહાત્માઓ કર્મબંધનથી છૂટકારે પામવા માટે જ સંયમ પાલન કરવું એ પરમાવશ્યક સમજે છે. तथा 'अह भिक्खणं पुव्वोवदिवा एस पइण्णा' साधुमान भाट पीत। लापान महावीर प्रये परसेथा की प्रतिज्ञा मतापी छ अर्थात माज्ञा ॥ छ. है 'जं पुवामेव पण्णस्स उच्चारपासवणभूमि पडिलेहिज्जा' संयमशील साधुणे भताना त्या १२ता પહેલાં જ મલમાદિ ત્યાગ કરવાના સ્થાનની પ્રતિલેખના કરવી જોઈએ. અર્થાત્ સ્થાનનું श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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