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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ३ सू. ६१ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ४७७ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा सेज्जासंथारभूमि पडिलेहित्तए, णण्णत्थ आयरिएण वा उवज्झाएण वा जाव गणावच्छेएण वा बालेण वा वुडेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण या विसमेण या पवाएण वा णिवाएण या वा तओ संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमज्जिय तओ संजयामेव बहुफासुयं सिज्जासंथारगं संथरिज्जा ॥सू० ६१॥ छाया-सभिक्षु वा भिक्षुकी वा अभिकाङ्क्षेन शय्या संस्तारभूमि प्रतिलेखितुम्, नान्यत्र आचार्येण वा उपाध्यायेन वा यावद् गणावच्छेदकेन वा, बालेन या वृद्धेन वा शैक्षेण या ग्लानेन वा आदेशेन वा, अन्तेन वा मध्येन वा समेन वा विषमेण वा प्रवातेन या निर्वातेन वा ततः संयत एव प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयत एव बहुप्रामुकं शय्या संस्तारकं संस्तरेत् ॥६१॥ ____टीका-सम्प्रति संस्तारकभूमिमधिकृत्य कमपि विशेष वक्तुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु भिक्षुकी वा 'अभिकंखिज्जा' अभिकाइक्षेत-वान्छेत्-‘सिज्जा संथारभूमि पडिलेहित्तए' शय्या संस्तारकभूमिम्-फलकादि स्थापनरस्थानं प्रतिलिखितुम् प्रतिलेखनं कर्तुं यदि इच्छेत् तर्हि 'णण्णत्य' नान्यत्र वक्ष्यमाणम् आचार्यादिभिः स्वीकृतं को 'पडिलेहिज्जा' प्रतिलेखन करलेना चाहिये या देख लेना चाहिये ।। ६० ।। अब संस्तारक संथरा पाथरने की भूमि को भी प्रतिलेखन करलेना चाहिये यह बतलाते हैं टीकार्थ-'से भिक्खु वा भिक्खुणी वा, अभिकंखेज्जा सेज्जा संथारभूमि पडिलेहित्तए' यह पूर्वोक्त भिक्षु और भिक्षुकी यदि शय्या संस्तारक भूमि को अर्थात् फलकपाट वगैरह स्थापन स्थान को प्रतिलेखन करना चाहे तो 'णण्णत्थ आयरिएण वा' आचार्यादि से स्वीकृत शय्या संस्तारक स्थान को छोडकर ही प्रतिलेखन करना चाहिये उसी को स्पष्ट करते हैं आचार्य से स्वीकृत शय्या संस्तारक स्थान को तथा 'उयज्झाएण या' उपाध्याय से स्वीकृत एवं 'जाव muaari य . ॥१०॥ હવે સંસ્તારક સંથારે પાથરવાની ભૂમિનું પણ પ્રતિલેખન કરવાનું સૂત્રકાર 3थन रे छ. .12 --'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा ते पूरित सयमशीस साधु सने साथी 'सेज्जा संधारभूमि पडिलेहित्तए ने शय्या सत्ता२४ सूभिनु अर्थात ३१४-५८ विगेरे स्थापन स्थान प्रतिवेपन ४२५॥ 'अभिकखेडा' ६२७॥ जाय तो णण्णत्थ आयरिएण वा' माथाय स्वीकृत शच्या संता२३स्थानने तथा 'उयज्झाएण वा' याये स्वीकृत श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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