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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ७ सू० ७९ पिण्डैपणाध्यय ननिरूपणम् २०९
मूलम्-से भिक्खु वा भिवखुणी या गाहावइकुलं जाव पविट्रे समाणे से जं पुण एवं जाणिज्जा, सालुयं वा, विरालियं वा सासवणालियं या अण्णतरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अप्फासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा ॥सू० ७९॥ __छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं यावत् प्रविष्टः सन् स यत् पुनरेवं जानीयात् शालूकम् वा विरालियम् वा सर्पपनालिकं वा, अन्यतरद् वा तथाप्रकारम् आमकम् अशस्त्रपरिणतम् अप्रासुकं यावद नो प्रतिगृह्णीयात् ।। सू० ७९ ॥
टीका-'आहारविषयमधिकृत्य पुनरपि निषेधं वक्तुमाह-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स पूर्वोक्तो भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'गाहायइकुलं' गृहपतिकुलं 'जाव पक्टेि समाणे' यावत्पिण्डपातप्रतिज्ञया भिक्षाग्रहणार्थम् प्रविष्टः सन् ‘से जं पुण एवं जाणिज्जा' स भिक्षुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात-'सालयं वा' शालुकम् वा जलसम्बन्धिकन्दविशेषम् 'सासवणालियं वा' सर्षपनालिकं वा-सर्वपकन्दलीरूपम् 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' अन्यतरद् वा अन्यत् किमपि तथाप्रकारम् तथाविधं गृञ्जनं पलाण्डुलशुनं वा आमर्ग' आमकम्-अपरि
और साध्वी नहीं सूघे, क्योंकि उस गन्ध में अत्यन्त आसक्ति होने से संयम की विराधना होगी, इसलिये उसे नहीं सूचना चाहिये ॥७८॥ ___ अब आहार विषय को लक्ष्यकर साधु और साध्वी के लिये उसका निषेध बतलाते हैं,
टीकार्थ-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाय पविढे समाणे से जं पुण एवं जाणिज्जा) वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी गृहपति गृहस्थ श्रावक के घर में यावत् पिण्डपातकी प्रतिज्ञा से-भिक्षालाभ की आशा से प्रविष्ट होकर वह साधु या साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रीति से जान ले कि-'सालुयं वा शालूक-जल में होने वाले कन्द विशेष शारूक या 'विरालि. यंदा' विरालिक-स्थल सम्बन्धि कन्द विशेष या 'सासवणालियं वा' सर्षपनालिक-सरसों की कन्दली अथवा 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' दूसरे अन्य भी उसी
હવે આહારને ઉદ્દેશીને સાધુ-સાધ્વી માટે તેને નિષેધ બતાવે છે
At-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित संयमी साधु मन साथी 'गाहावइकुलं' २५ श्रावन घरमा 'जाव पविदेसमाणे' यावत् भिक्षा मालनी ४२थी प्रवेश
श२ 'से जं पुण एवं जाणिज्जा' तीन पाम से भाव 'सालुयं' वा' पाएमा थना। सासूनामना ६ विशेष 424। 'विरालिय वा' स्थमा थना२ विलिनामना विशेष 'सासवणालियवा' स२सपना है अथवा 'अण्णयरं तहप्पगारं' भी रे तया ४।२। १४२, प्यार, AA], वगेरे ‘आमगं' २५५२५४५ तथा 'असत्थंपरिणय' २७ परिणत
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श्री सागसूत्र :४