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________________ १६७ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ६ सू० ६३ पिण्डेषणाध्ययननिरूपणम् 'उन्वत्तमाणे वा' अपवर्तयन् वा अग्निनिक्षिप्तपात्रं तिर्यक्कुर्वन् वा, 'अगणिजीवे हिंसिज्जा' अग्निजीवान्- अग्निकायजीवान् हिंस्यात् - हन्यात् 'अह' अथ - अनन्तरोक्तम् ' भिक्खू' भिक्षूणाम् - साधूनां साध्वीनाश्च 'पुव्वोवदिट्ठा' पूर्वोपदिष्टा पूर्वप्रतिपादिता 'एस परन्ना' एषा प्रतिज्ञा कर्तव्यपालननियमः 'एसहेऊ' एषहेतुः 'एस कारणे' एतत् कारणम् 'एसुवदेसे' एष उपदेश: 'जं तहपगारं ' यत् तथाप्रकारम् उपर्युक्तम्, अग्निनिक्षिप्ताद्याहारजातम् तदाह 'असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा' अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा 'अगणिणिक्खित्तं' अग्निनिक्षिप्तम् - अग्नौ उपरिस्थापितम् 'अप्फा सुर्य' अप्रासुकम् - सचित्तम् 'अणेसणिज्जं' अनेषणीयम् - आधा कर्मादिदोषयुक्तम् मन्यमानः 'लाभे सति' लाभे सत्यपि 'णो डिगाहिज्जा' नो प्रतिगृहीयात् सचित्तत्वाद् आधा कर्मादिपोडशदोपयुक्तत्वाच्च संयमात्मविराधना स्यात् ।। • ६३ ॥ बार आमार्जन करते हो एवं 'ओयारे माणे वा' अग्नि के ऊपर से अशनादि आहार को उतारते हुए हो या 'उच्चत्तमाणे वा' अपवर्तन - टेढेमेढे करते हुए हो तो 'अगणि जीवे हिंसिज्जा' अग्नि जीवो की हिंसा करेगा किन्तु उपर्युक्त रीति से साधु और साध्वी की यह प्रतिज्ञा है कर्तव्य का पालन करने का नियम है कि 'एसकारणे' कर्तव्य पालन ही कारण है 'एसवएसे' एवं कर्तव्य का पालन करना यही भगवान् का उपदेश है यही कहते है कि- 'तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खादिमं वा साइमं वा' उस प्रकार का 'अगणिक्खित्तं' अग्नि पर निक्षिप्त अशन पान खादिम और स्वादिम चतुर्विध उपर्युक्त आहार जात को 'अष्फासुर्य' अप्रासुक सचित्त और 'अणेसणिजं' अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझकर 'लाभेसंते णो पडिगाहिज्जा' मिलने पर भी नहीं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार का अशनादि आहार जात अग्नि के ऊपर स्थापित बरलोही वगैरह पात्रों से साधु के लिये निकाला हुआ है एवं जलादि से सिश्चित किया गया है तथा प्रमार्जित एवं अवतारित तथा अपवर्तित किया हुआ है इसलिये अग्नि कुरता होय तथा अमिनी उपरथी ओयारेमाणे वा उव्वत्तमाणे वा' अशनाहि भाडारने उतारता होय ! वायु पुरता होय तो 'अगणिजीवे हिंसिज्जा' अभिप्राय भवानी हिंसा थाय छे, परंतु 'अह भिक्ख णं पुत्रोवदिट्ठा एस पइण्णा' पूर्वोस्त रीते साधु ने साध्वीनी या प्रतिज्ञा छे. 'एसहेऊ एसकारणे' ४ हेतु३५ २५ छे, उर्तव्य पालन पुरानो नियम छे. 'एसुवएसे' मे उपदेश छे. 'जं तहप्पगारं असणं वा, पाणं वा खाइम साइमं वा ते अरना अनि पर राजेस अशन यान जाहिम भने स्वामि यतुविध आहार लत 'अगणिणिक्खित्तं अफासुय” अनि पर राजेस होवाथी सचित्त भने 'अणेस णिज्जं ' अनेषणीय-भाषार्भाहि होषोथी युक्त समने 'लाभे संते णो पडिगाहिज्जा ' પ્રાપ્ત થાય તે પણ લેવુ' નહી', કેમ કે આ રીતના અશનાદિ આહાર જાત અગ્નિની ઉપર શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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