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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. ६ सू० ६२ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् १६३ यावत् संतानायाम् अमैत्सुर्वा, भिन्दन्ति वा भेत्स्यन्ति व', अपैक्षुर्वा पिंपन्ति वा, पेक्ष्यन्ति वा बिलं वा लवणम् उद्भिज्ज वा लवणम् अप्रासुकम् यावत् नो प्रतिगृह्णीयात् ।। सू० ६२॥
टीका-भिक्षाविशेषमधिकृत्य निषेधमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स पूर्वोक्तो मिक्षुर्वा मिक्षुकी वा 'गाहावइकुलं जाव' गृहपतिकुलम् यावत् भिक्षाप्रतिज्ञया 'पविढे समाणे प्रविष्टः सन् ‘से जं पुण एवं जाणिज्जा' अथ यदि स पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् 'बिल. वा लोणं' बिलं वा लवणम्-खनिविशेषोत्पन्नं सैन्धव सौवर्चलादिकं वा लवणम् 'उब्भियं वा' उद्भिज्ज वा-समुद्रनिकटे क्षारजलसम्पर्काद् जायमानं वा 'लोण' लवणं असंजए' असंयतः गृहस्थः 'भिक्खुपडियाए' भिक्षुप्रतिज्ञया-भिक्षुकाय भिक्षादानार्थम् 'चित्तमंताए सिलाए' चित्तवत्यां सचित्तायां शिलायाम् 'जाव संताणाए' यावत्-सबीजायां सहरितायां साण्डायां टीकार्य-अबभिक्षा विशेष को लक्ष्य करके उसका निषेध बतलाते हैं-से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु-भाव साधु और भिक्षुकी-भाव साध्वी 'गाहावइ कुलं जाव पविटेसमाणे' गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर में यावत-पिण्ड पात की प्रतिज्ञा से-भिक्षाला की आशा से अनुप्रविष्ट होकर 'से जं पुण एवंजाणिज्जा' वह यदि ऐसा वक्ष्यमाण रीति से जान ले की-'बिलं वा लोणं' बिल-खान विशेष में उत्पन्न सैन्धा और सौवर्चलादि (बिट) नमक को या 'उन्भिज्ज वा लोणं' उभिज्ज-समुद्र के निकट क्षार जल के सम्पर्क से जायमान नमक को 'असंजए भिक्खुपडियाए' असंयत गृहस्थ श्रावक साधु को भिक्षा देने की इच्छा से 'चित्तमंताए सिलाए जाव' सचित्त शिलापर यावत् 'संताणाए' जो शिला सचित बीजों से एवं सचित हरित घासों से एवं अंडों से प्राणियों से सत्वों से भूतों से और लूता-मकरा वगैरह के तन्तु जालों से भी युक्त है 'भिदिसुवा' ऐसे शिला पर कूटकर चूर्णकर चुके है या 'भिंदंति वा' चूर्णकर रहे हैं કરવું નહીં સચિત્ત હોવાથી તેને લેવાનો નિષેધ કરેલ છે. મેં સૂ. ૬૧ છે
હવે ભિક્ષા વિશેષ સંબંધી નિષેધનું કથન કરે છે–
12- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित माप साधु मने ला साकी गावावइकुलं जाव' गस्थ श्रापना घरम, यावत् मिक्षा प्रान्त ४२वानी ४२४ाथी पविट्रेसमाणे प्रवेश श से जंपुण एवं जाणिज्जा' तमनाम मे यावे हैं-'बिलं वा लोणं उब्भिय वा लोणं' मा विशेषमाथी नाणेस सिधव मने मीटनामना भीमाने मथवा Share अर्थात समुद्रनी ना क्षा२ जना स५४थी यनार' भीने 'असंजए भिक्ख पडियाए' श्राप खस्य साधुन भिक्षा २५वानी ५२छाथी 'चित्तमंताए सिलाए' सथित शिक्षानी ५२ 'जाव संताणाए' यावत् २ (श सयित्त पीयाथी तथा सथित्तबासातश ઘાથી તથા ઈંડાએથી કે પ્રાણિયેથી મકડા વિગેરેની તતુ જાળેથી યુક્ત હોય એવી शीn G५२ "भिदिसु वा, भिंदति वा भिदिस्संति वा' टीन पाटीन थू री सीधेला
श्री मायारागसूत्र :४