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आचारांगसूत्रे
तवन्तो वा, 'कुटिति वा कुट्टन्ति वा-कुट्टनं कुर्वन्ति वा 'कुट्टिस्संति वा' कुट्टिष्यन्ति वा कुट्टन करिष्यन्ति वा एवम् 'उप्फणिमु वा' अदुर्वा-तुषापनोदाय वाताभिमुखं दत्तवन्तो वा 'उप्फणिति चा ददति वा 'उप्फणिस्संति वा दास्यन्ति वा 'तहप्पगारं पिहुयं वा' तथाप्रकारम्सचित्तं सचित्तशिलादौ कुट्टयमानं वा पिथुकादिकम् 'जाव' यावत्-बहुसचित्तरजः कणोपेतम्, भर्जितं मन्थुवा तण्डुलं वा तण्डुलप्रलम्ब वा 'अप्फासुयं जाव' अप्रासुकं सचित्तम् यावद् अनेषणीयम् मन्यमानः 'नो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात लामे सत्यपि सचित्त. त्यात् न ग्रहीतव्यम् ॥ सू० ६१॥ ___मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुगी वा गाहावइकुलं जाव पक्ट्रेि समाणे से जं पुण एवं जाणिज्जा बिलं वा लोणं, उब्मियं वा लोणं असंजए भिक्खु पडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव संताणाए भिंदिसु वा, भिंदति वा, भिंदिस्संति वा, रुच्चिसु वा रुञ्चिति वा रुचिस्संति वा बिलं वा लोणं अफासुयं जाव णो पडिगाहिजा ॥सू० ६२॥
छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं यावत् प्रविष्टः सन् स यत् पुनः एवं जानीयात् बिलं वा लवणम् उद्भिज्ज वा लवणम असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया चित्तवत्यां शिलायाम् कूटते है या 'कुटिस्संति' कूटने वाले हैं एवं तुष-स्ता को हटाने-उडाने के लिये 'उप्पणिसु वा' पवन की ओर वायु के अभिमुख दे चुके हैं या 'उप्फणंति चा 'उप्फणिस्संति वा दे रहे हैं या देने वाले हैं ऐसा देख ले या जान ले तो 'तहप्पगारं पिहुयं वा बहुरयं वा' यावत् इस प्रकार के सचित्त शिला पर कूटे जाते हुए सचित्त पृथुकादि को 'अप्फासुयं जाव' अप्रासुक-सचित्त समझ कर यावत्-अनेषणीय-आधाकर्मादि दोष युक्त मानकर 'णो पडिगाहिजा नहीं ग्रहण करना चाहिये अर्थात् इस प्रकार के सचित पृथुकादि को मिलने पर भी सचित्त होने से नहीं लेना चाहिये ॥ ६१ ॥ तथा सचित्त दीसातरी पासथा युत डाय तथा थी युंत हाय तथा 'संताणाए' तथा भीत प्राणी सत्व-भूत मानी ५४ती थी युक्त डाय मेवी सयित शिक्षा ५२ 'कुहिसु वा' दूटी यूइस डाय 424। 'कुटुंति वा' टाय ॥२ 'कुद्विस्संति वा' दूटपामा भावना डाय तया तुष-मुसान 631341 माटे 'उप्फाणसु वा' ५५ननी त२३ मापे डाय अर्थात् 6jी दीधेट डाय 'उम्फणिसंति वा' ५५41 पता डाय अथवा 'उप्फणिसंति वा' ५५]पाना डाय अर्थात् 3313वाना डाय मे नपाथी 3 पाथी 'तहप्पगारं पिहुयं वा बहु रयं वा जाव' मे। ४१२ना सथित्त शिक्षा ५२ फूटपामा माता सयित्त पृथुहिने 'अफासुय' सायत्त समलने यावत् अनेषणीय-
भादोषवाको भानीर अहए ४२ नही. अर्थात मा प्रधान सथित्त पृथु प्राप्त थाय त प णो पडिगाहिज्जा' हुए
श्री मायारागसूत्र :४