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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ गा० ७-८ अ. १६ विमुक्ताध्ययनम् संसर्गरहितः सन् इमं लोकम्-एतल्लोकम, अस्मिन् जन्मनि तथा परलोकम्-परलोके स्वर्गादावित्यर्थः ऐहलौकिकपारलौकिक सुखविषयाशारहितः सन् 'न मिज्जई कामगुणेहि पंडिए' एवं भूतः साधुः कामगुणैः-मनोज्ञशब्दादिभिः न मीयते-न परिच्छिद्य ते, नो प्रतिबध्यते इत्यर्यः, अत एव स भावसाधुः प्रियमनोज्ञशब्दादीनां कटुपरिणामदर्शित्वात् पण्डित इत्युच्यते पण्डा-सांसारिकविषयभोगतृष्णारहिता मोक्षविषयिणी बुद्धिः संजाता अस्येति पण्डितशब्दव्युत्पत्तिः 'तारकादिखाद इत्मत्ययो बोध्यः तथा च साधुः कर्मपाशबद्धगृहस्थान्यतीथिकादि सम्पर्करहितः स्त्री संसर्गरहितश्च भूत्वा विचरेत, तथा सः स्वसत्कारादि--अभिला. षामपि न कुर्यात्, एवमेव ऐडलौकिकपारलौकिकसुखकामनापि नो विदध्यात्, तथा मनोज्ञस्वर्गादि में अर्थात् ऐहलौकिक तथा पारलौकिक सुखविषय की आशा रहित होकर 'न मिजई कामगुणेहिं पंडिए' निर्ग्रन्थ जैन साधु कामगुणों से अर्थात् मनोज्ञ अत्यन्त प्रिय रमणीय शब्दादि विषयों से प्रतिबद्ध नहीं होता है इसी. लिये वह भावसाधु निर्ग्रन्थ जैन मुनि महात्मा प्रिय मनोज्ञ शब्दादि के कटु परिणाम का ज्ञाता होने से पण्डित कहलाते हैं क्योंकि पण्डा अर्थात सांसारिक विषय भोग तृष्णा से रहित और मोक्ष विषयिणी बुद्धि जिस को उत्पन्न हो जाती है उस को पण्डित कहते हैं इस प्रकार पण्डित शब्द की व्युत्पत्ति बतलायी गयी है क्योंकि पण्डा शब्द तारकादिगण में पठित होने से 'तारकादिभ्य इतचू' इस सूत्र से पण्डा शब्द से इतच् प्रत्यय होकर आकार का लोप होने से पण्डित शब्द बनता है इसलिये निर्ग्रन्ध जैन साधु मुनि महात्मा कर्मपाशों से बद्ध गृहस्थों के सम्पर्क से रहित होकर और अन्य तीथिकादि के सम्पर्क से भी रहित होकर तथा स्त्री के संसर्ग से भी रहित होकर विहार करें और अपने सत्कारादि की अभिलाषा भी नहीं જન્મમાં તથા પરલેક સ્વર્ગાદિમાં અર્થાત અહલૌકિક તથા પારલૌકિક સુખ સંબંધી આશાને ત્યાગ કરીને નિગ્રંથ મુનિ કામગુણોથી અર્થાત્ મનોજ્ઞ અત્યંત પ્રિયરમણીય શબ્દાદિ વિષથી પ્રતિબદ્ધ થતા નથી તેથી તે સંયમી સાધુ પ્રિય મનેઝ શબ્દાદિ વિષના કટુ परिणामना ज्ञाता पाथी 'न मिज्जइ कामगुणेहि पंडिए' ५डित ४ाय छे -५ અર્થાત્ સાંસારિક વિષય ભોગ તૃણાથી રહિત અને મેક્ષ વિષયિકી બુદ્ધિ જેને ઉત્પન્ન થાય છે તેને પંડિત કહેવાય છે. આ રીતે પંડિત શબ્દની વ્યુત્પત્તિ બતાવેલ છે, કેમકે ५।२६ ता२मा ४९ पाथी 'तारकादिभ्य इतच' २॥ सूत्रयी ५३२५४ी ઈતચ પ્રત્યય થઈને આકારનો લેપ થવાથી પંડિત શબ્દ બને છે, તેથી નિન્દમુનિએ કર્મ પાશથી બદ્ધ ગ્રહસ્થના સંપર્કથી રહિત થઈને અને અન્ય તીર્થિક દિના સંપર્કથી પણ રહિત થઈને તથા સ્ત્રીના સંસર્ગને ત્યાગ કરીને વિહાર કરે, અને પિતાના સત્કાર વિગેરેની અભિલાષા પણ કરવી નહીં', એજ પ્રમાણે નિશ્વમુનિએ એહલૌકિક તથા પાર आ० १४८ श्रीमाया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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