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________________ ११७६ आचारांगसूत्रे टीका सम्पति पूर्वोक्ताहिंसादि पञ्चमहाव्रतशुद्धयर्थम् मूलगुणनिरूपणानन्तरम् उत्तरगुणान् प्ररूपयितुमाह- 'सिएहिं भिक्खू असिए परिव्वए' सितैः- कर्म गृहपाशबद्धैः मनुष्यैः कर्मणा रागद्वेषादि निबन्धनगृहजालपाशेन वा बद्धाः गृहस्थपुरुषाः अन्यतीर्थिका वा सिता इत्युच्यते, 'षिब्बन्ध ने क्तप्रत्ययः तैः सह असितः - अवद्धः तैः सार्द्ध संगमकुर्वाणः भिक्षुःभावसाधुः परिव्रजेत् - संयमानुष्ठानशीलः सन् विचरेत् संयमग्रहणं कृत्वा विहरेदित्यर्थः, तथा 'असज्जमित्थी चइज्ज पूयर्ण' स्त्रीषु युवतिकामिनीषु असजन - असक्तः सन् आसक्ति वर्जयित्वेत्यर्थः स्त्रीणां संग त्यक्त्वा इति भावः त्यजेत् पूजनम् - मानसम्मानादराभिलाषं परित्यजेदित्यर्थः एवम् 'अणि स्सिओ लोगमिणं तहा परं' अनिश्रितः - अबद्धः, स्त्रीविषय करने के बाद अब उत्तरगुणों का निरूपण करने के लिये कहते हैं - सित याने कर्मरूप गृहपाशों से बंधे हुए मनुष्य अथवा रागद्वेषादि निबन्धन गृह जाल पाश रूप कर्म से बंधे हुए गृहस्थ पुरुष या अन्यतोर्थिक लोग सित कहलाते हैं क्योंकि 'षिञ् बन्धने' इस प्रकार बन्धनार्थक षिव् धातु से क्त प्रत्यय करने पर मूर्धन्यषकार को दन्त्यसकार कर देने पर सित शब्द बनता है जिसका अर्थ 'बन्धा हुआ' यह अर्थ होता है इसलिये उन कर्म रूप गृहपाश से बंधे हुए पुरुषों के साथ तथा असित अर्थात् कर्म रूप गृहपाश से नहीं बंधे हुए पुरुषों के साथ संगति नहीं करते हुए निर्ग्रन्थ जैन साधु विहार करें याने संयम अनुष्ठान शील होकर विचरे अर्थात् संयम को ग्रहण कर बिहार करें तथा 'असज्ज मित्थीसु चइजपूयणं' युवती कामिनी स्त्रियों में आसक्ति को छोड़कर याने स्त्रियों का संग त्याग कर पूजन-मान सम्मान आदराभिलाष को छोड़ दे तथा अनिश्रित याने अबद्ध होकर अर्थात स्त्री विषय का संसर्ग रहित होकर 'अणिस्सिओ लोगमिण तहापरं' इस लोक को याने इस जन्म में तथा परलोक , भाटे हे छे- 'सिएहिं भिक्खु असिए परिव्वए' सीदेत अर्थात् ४३५ शृडपाशोथी गंधा. ચેલ મનુષ્ય અથવા રાગદ્વેષાદિ નિમધન ગૃહજાળ પાશરૂપ કર્મથી બધાયેલ ગૃહસ્થ પુરૂષ ऐ अन्य तीर्थ बन सित देवाय छे, म है 'पित्र बन्धने' से रीते धनार्थ षिञ् ધાતુને ‘ક્ત' પ્રત્યય લાવાડવાથી અને મૂર્ધન્યષ કારને દંતી કરવાથી ‘સિત' શબ્દ અને છે, જેના અર્થોં બધાયે એ પ્રમાણે થાય છે, તેથી એ કરૂપ ગૃહુપાશથી બધાયેલ પુરૂષોની સાથે તથા અસિત અર્થાત્ કરૂપ ગૃહપાશથી ન બંધાયેલ પુરૂષોની સાથે સંગતિ કર્યાં શિવાય નિન્થ મુનિએ વિહાર કરવા, એટલે કે સંયમાનુષ્ઠાનશીલ થઈને વિચરવુ अर्थात् सयभने श्रड पुरीने विहार ४२व। तथा 'असज्ज मित्थीसु चइज्जपूयणं' युवती કામિની શ્રિયામાં આસક્તિ છેડીને એટલે ?–ન્નિયાના સ’ગ ત્યજીને પૂજન-માન સન્માન मने साहरनी मलिसाराने छोड़ी हेवी तथा 'अणिहिसओ लोगमिण तहापरं' अनिश्रित અર્થાત્ અમૃદ્ધ થઈને અર્થાત્ સીસ બધી સ ́સગના ત્યાગ કરીને આ લેકને અર્થાત્ આ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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