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________________ - - 2 . W १९३२ आचारांगसूत्रे विराधना स्यात, तस्मात् 'निग्गंथे उग्गहंसि उग्गहियंसि' निग्रन्थः-साधुः अवग्रहे-क्षेत्रकालमर्यादारूपावग्रहे अवगृहीते एव 'अभिक्खणं अभिक्खणं उग्गहणसीलएत्ति' अभीक्ष्णम् अभीक्ष्णम्-शश्वत् अवग्रहणशीलः स्यादिति 'च उत्था भावणा' चतुर्थीभावना अवगन्तव्या। सम्प्रति तृतीयमहाव्रतस्य पञ्चमी भावनां प्ररूपयितुमाह-'अहावरा पंचमा भावणा' अथचतुर्थभावना प्ररूपणानन्तरम् पश्चमी भावना प्ररूप्यते-'अणुवीइ मिउग्गहजाई से निगये साहम्मिएस' यः निर्ग्रन्थः साधुः अनुविचिन्त्य-विचारपूर्वकं मितावग्रहयाची-परिमितक्षेत्रउपाश्रय के अधिष्ठाता वगैरह से क्षेत्रकाल मर्यादा रूप अवग्रह की अनुमति लेकर ही उपाश्रय में ठहरना चाहिये, 'अभिवणं अभिक्खणं उग्गहण सीलए सिया' एतावता अभीक्ष्ण शश्वत् हमेशा अवग्रहशील हो साधु को होना चाहिये, 'केवलीबूया' अन्यथा केवलज्ञानी भगवान् श्रीमहावीर स्वामी ने कहा है कि-यह शश्वत् अवग्रहण अर्थात् अवग्रहशील नहीं होना आयाणमेयं आदान-याने कर्मबन्ध का कारण माना जाता है क्योंकि यदि-निग्गंथेणं उग्गहं. सिउ अभिक्खणं अभिक्खणं' निग्रंथ जैन साधु हमेशां अवग्रहशील नहीं होगा याने 'अणुग्गहणसीले अदिन्नं गिपिहजा' अवग्रहशील नही होगा तो अदत्त स्थानादि वस्तु का भी ग्रहण करेगा इससे संयम की विराधना होगी इसलिये 'तम्हा निग्गंथे उग्गहसि उगाहियंसि अभिक्खणं अभिक्खणं' संयम पालन करनेवाले जैन साधु को हमेशा क्षेत्रकाल मर्यादारूप 'उग्गहणसीलएत्ति' अवग्रह को ग्रहण करने के लिये सतत हमेशां अवग्रहण शोल ही होना चाहिये इस प्रकार 'चउत्था भावणा' चतुर्थी भावना समझनी चाहिये। अब उक्त तृतीय महावत की पांचवी भावना का निरूपण करते हैं'अहावरा पंचमा भावणा' अथ अदत्तादान विरमण रूप तृतीय महावत की चतुर्थों भावना के निरूपण करने के बाद पञ्चमी भावना का निरूपण करते हैं कि-वह निर्ग्रन्थ 'अणुवीई मिउग्गह जाई से निग्गंथे' जैन साधु विचारपूर्वक परिमित अवग्रह को याचना करें 'साहम्मिएसु नो अणणुवीइ દૃષિ જે નિર્મળ મુનિ હમેશાં અવગ્રહણશીલ ન થાય અર્થાત્ અનવગ્રહશીલ જ થાય तो 'अभिक्खणं अभिक्खणं अनुग्गहणसीले अदिण्णं गिहिज्जा' महत्त स्थान परतुनु ५६१ घडएर ४२. तेथी सयभनी विराधना थाय छे. 'तम्हा निग्गंथे उग्गहसि उग्गहियंसि अभिक्खणं अभिक्खणं उग्गहणसीलएति' तथी संयमपासन ४२वा साधुये हमेशा Aण मर्या३५ अह अहण ४२वा माटे सतत अवघड शस" य. 'चउत्था भावणा' मा प्रमाणे याथी भावना सभरवी. वे थेत्री महायतनी पांयमी मापनातु नि३५२) ४२वामा मा छे-'महावरा पंचमा भावणा' महत्तहान वि२भए ३५ श्री महायतनी योयो भावनानु नि३५९४ ४शन पायभी मानानु नि३५४ थाय छे.-'अणुवीइ मिउग्गह जाई से निग्गंथे साहम्मिएसु' से श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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