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________________ भर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १० अ. १५ भावनाध्ययनम् १९३३ कालावग्रहयाचनां कुर्यात साधर्मिकेषु-साधर्सिकेभ्यः साधुभ्यः क्षेत्रकालमर्यादारूपावग्रह याचे तेत्यर्थः 'नो अणणुवीईमि उग्गहजाई' नो अवनुविचिन्त्य-विचारमकृत्वैव मितावग्रह, याची-परिमितक्षेत्रकालावग्रहयाचकः स्यात्, तथासति दोषो भवेदिति आह-'केवलीबूयाआयाण मेयं' केवली-केवलज्ञानी ब्रूयात्-वदति-आदानम्-कर्मबन्ध कारणम् एतत-अविचारपूर्व क्षेत्रकालावग्रहणं कर्मबन्धहेतुर्भवतीतिभावः तथाहि 'अणणुवोइ मिगहनाई' अननु विचिन्त्य-अविचार्य मितावग्रहयाची-क्षेत्रकालावग्रहयाचकः ‘से निग्गथे साहम्मिएमु अदिन्नं उगिहिज्जा' स निर्ग्रन्थः साधुः साधर्मिकेषु-साधर्मिकेभ्यः साधुभ्यः अविचारपूर्वकमेव क्षेत्रकालमर्यादारूपावग्रहयाचकः साधुः अदत्तं वस्तु अवगृहीयात् तथा च संयमविराधना स्यात्, तस्मात् 'अणुवीइ मिउग्गहनाई से निग्गंथे' साहम्बिएम' अनुविचिन्त्य-विचारं कृत्वैव स निर्ग्रन्थः साधुः साधर्मिकेषु-साधर्मिकेभ्यः मितावग्रहयाची-परिमितक्षेत्रकालावग्रह याचेत 'नो अणणुवीइ मिउगहजाई' नो अननुविचिन्त्य-अविचाव मिताक्ग्रहयावी-पारमितोक्तामिउग्गजाई' सार्मिक जैन साधुओं से विचारपूर्वक परिमितावग्रह याची हो याने क्षेत्रकाल मर्यादा रूप अवग्रह की याचना करें किन्तु विचार किये विना ही परिमित क्षेत्र कालावग्रह याचक नहीं हो अर्थात् अविचारपूर्वक जैन साधु को अपने साधर्मिक जैन साधुओं से क्षेत्रकाल मर्यादारूप परिमित क्षेत्रकालावग्रह का याचक नहीं होना चाहिये क्योंकि 'केवलीबूया' केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी ने कहा है कि-'आयाणमेयं' यह अविचारपूर्वक क्षेत्रकाल का अवग्रह करना आदान अर्थातू कर्मबन्ध का कारण माना जाता है क्योंकि 'अणणुवीइ मिउग्गहं जाई से निग्गंथे' विना विचारे अर्थात् विचार किया विना ही क्षेत्रकालावग्रह का याचक वह निर्ग्रन्थ जैन साधु 'साहम्मिएसु अदिन्नं उग्गिणिजा' सार्मिक साधुओं से अविचारपूर्वक ही क्षेत्रकाल मर्यादा रूप अवग्रह का याचक होने से अदत्त वस्तु को भी ग्रहण कर लेगा उससे संयम की विराधना होगी 'तम्हा अणुवोइ मिउगह जाई से निग्गंथे इसलिये विचार करके ही वह निम्रन्थ जैन साधु साधर्मिक जैन साधुओं से परिमित નિગ્રંથ મુનિએ સાધમિકેની પાસેથી વિચાર પૂર્વક પરિમિત અવગ્રહ યાચી થવું એટલે है क्षेत्र ४५ भय । ३५ ५२नी यायना ४२वी. 'णो अणणुवीई मिउग्गह जाइ' ५२'तु વિચાર કર્યા વિના જ પરિમિત ક્ષેત્ર કાલાવગ્રહની યાચના કરવી નહી. અર્થાત અવિચાર પૂર્વક સાધર્મિક જૈન સ ધુએ ક્ષેત્ર કાળ મર્યાદા રૂપ પરિમિત ક્ષેત્ર કાલાવગ્રહની યાચના ४२. 18. म.-'केवलीबूया आयाणमेयं विज्ञानी वात२।२५ मावान् श्री महावीर સ્વામીએ કહ્યું છે કે-આ અવિચાર પૂર્વક ક્ષેત્રકાળનું ગ્રહણ કરવું તે આદાન અર્થાત કર્મ धनु ॥२९ ४३वाय छे. 'अणणुवीइ मिउग्गहजाई से निग्गथे' म कर लिया अर्थात् विया या विना १ क्षेत्राला याय: सपा से निन्य साहम्मिएसु अदिण्हं श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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