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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १० अ० १५ भावनाध्ययनम् परित्यागं करोति स निर्ग्रन्थः साधुरिति भावः, तस्मात् 'नो भयभीरुए सिया' भयस्य कारणे देवमनुष्यतिथचकृति उपस्थिते सति नो साधुः भयभीरू: स्यात्-भवेत्, तथाहि'केवलीबूया-आयाणमेयं' केवली-केवलज्ञानी भगवान् तीर्थकुद् याद्-आह-आदानम्-. कर्मबन्धकारणम् एतत्-साधोः भयभीरूत्वम् कर्मबन्धकारणं भवतीति भावः। तत्र युक्तिमाह'भयपत्तेभीरू समावइत्ता मोसं वयणाए' भयप्राप्तः साधुः भीरु:-भूखा समापधे मृपावचनम्-मिथ्याभाषणं करोति, अतएव 'भयं परिमाणइ से निग्गथे' यो भयं परिजानातिभयस्य कटुपरिणाम ज्ञप्रज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानप्रज्ञया प्रत्याख्यानं परित्यागं करोति स निग्रन्थः साधुरिति भावः तस्मात् 'नो भयभीरुए सिया' नो साधुः भयभीरूः स्याद भवे. दिति 'चउत्था भावणा' चतुर्थी भावना द्वितीयमहावतस्यावगन्तव्येति भावः, सम्प्रतिज्ञप्रज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से प्रत्याख्यान करता है याने भय का परि त्याग करता है वहीं निग्रन्थ सच्चा जैन साधु हो सकता है या कहा जाता है इसलिये 'तम्हा नो भयभीरूए सिया' साधु को भय भीरु नहीं होना चाहिये याने जैन साधु को भय नहीं करना चाहिये क्योंकि-'केवलीबूया' केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी कहते हैं कि-यह अर्थात् साधु को भय भीरू होना याने साधु को भय करना 'आयाणमेयं' आदान कर्मबन्ध का कारण माना जाता है-क्योंकि 'भयपत्ते भीरु समावइत्ता मोसं वयणाए' भय को प्राप्त करनेवाला साधु भीरु होकर मृषावचन याने मिथ्याभाषण करता है इसलिये 'भयं परिजाणइ से निग्गंथे' जो साधु जैन मुनि महात्मा भय को अच्छी तरह जानता है याने भय के कटु परिणाम को ज्ञप्रज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से प्रत्याख्यान करता है अर्थात् भय का परित्याग करता है वही निर्ग्रन्थ जैन साधु हो सकता है इसलिये 'नो भयभीरुए सिया' जैन साधु को भय भीरु नहीं होना चाहिये इस प्रकार उपर्युक्त रीति से 'चउत्था भावणा' चतुर्थी भावना समझनी चाहिये ___ अब उसी द्वितीय मृषावाद विरमण रूप महावत की पञ्चमी भावना का बयभीरुए सिया' तथा साधु भयभी३ ५ नली. सातू साधु अ५ मा नहीं: 'केवलीबूया आयाणमेयं' भ ज्ञानी बगवान् श्रीमहावीर स्वामी ४ छ ४-॥ અર્થાત્ સાધુએ ભયભીરૂ (ડરપોક થવું) અર્થાત્ સાધુએ ભય રાખે એ આદાન કર્મબંધનું १२५ मनाय. 'भयपत्ते भीरू समावइत्ता मोसं वयणाए' लय १श यनार सा५ ७२२५ २४ भषापयन अर्थात् असत्य वयन मासे छे. तेथी 'भयं परिजाणइ से निग्गंथे' જે સાધુ મહાત્મા ભયને સારી રીતે જાણે છે એટલે કે ભયના કડવા પરિણામને પ્રજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પ્રજ્ઞાથી પ્રત્યાખ્યાન કરે છે. અર્થાત ભયને પરિત્યાગ કરે છે. એજ नियन मुनि वाय छे. तेथी 'नो भयभीरूए सिया चउत्था भावण' . साधुमे ભયભીરૂ (ડરપેક) થવું નહીં આ પ્રમાણે ઉપરોક્ત રીતે આ ચોથી ભાવના સમજવી. હવે એજ બી જા મૃષાવાદ વિરમણ રૂપ મહાવ્રતથી પાંચમી ભાવનાનું નિરૂપણ કરવા आ० १४१ श्रीमायाग सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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