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११२२ तस्यैत द्वितीयमहावतस्य पञ्चमी भावनां प्ररूपयितुमाह-'अहावरा पंचमा भाषणा' अथचतुर्थ भावना प्ररूपणानन्तरम् अपरा- अन्या पश्चमी भावना प्ररूप्यते-'हासं परियाणइ से निगंथे' हासं परिमानाति-यो हासस्य कलहादि कटुपरिणामं ज्ञप्रज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यान. प्रज्ञथा प्रत्याख्यानं परित्यागं करोति स निग्रन्थः- साधुरुच्यते तस्मात् 'नो य हासणए सिया' न च साधुः हसन हासशीलः स्यात्-भवेत् तथाहि केवली बृया-आयाण मेयं' केवलीकेवलज्ञानी भगवान् जिनेन्द्रः ब्रूयाद्-आह, आदानम्-कर्मबन्धकारणम्, एतत्-साधो हासशीलत्वम् कर्मबन्धकारणं भवतीति भावः तत्र युक्तिमाह-'हासपत्ते हासी समावइत्ता मोस वयणाए' हासप्राप्तः साधुः हासी-हासयुक्तो भूत्वा समापधेत-मृपावचनम् --मिथ्यामाषणं करोति निरूपण करने के लिये कहते हैं-'अहावरा पंचमा भावणा' अथ द्वितीय महावत की चतुर्थी भावना के निरूपण करने के बाद अब अपरा अन्या पश्चमी भावना का निरूपण करते हैं कि-'हासं परिजाणइ से निग्गंथे' जो साधु हास को अच्छी तरह जानता है याने ज्ञप्रज्ञा से हास के कटु परिणाम को जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से प्रत्याख्यान करता है अर्थात् हास के कटुपरिणाम' (कलहादि) को जानकर परित्याग करता है वही सच्चा निर्ग्रन्थ जैन साधु हो सकता है 'तम्हा नो य हासणए सिया' इसलिये जैन साधु को हास नहीं करना चाहिये याने जैन साधु मुनि महात्मा किसी भी व्यक्ति के साथ हसी मखोल दिल्लगी नहीं करें क्योंकि 'केवल बूया' केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी कहते हैं कि'आयाणमेय' यह-अर्थात् जैन साधु को हसि मखौल दिल्लगी करना आदान अर्थात कर्मबन्ध का कारण माना जाता है क्योंकि 'हास पत्ते हासी समावइत्ता' हास को प्राप्त करनेवाला याने हसी मखौल दिल्लगा करनेवाला साधु हासयुक्त होकर याने हस कर 'मोसं वयणाए' मृषावचन-मिथ्यामाषण करता है इसलिये भाटे हेवामा मावे छ.-'अहावरा पंचमी भावणा' हा महामनी याथी मानानु नि३५५५ शन वे भन्या पांयमी लानानु नि३५५४ राय छे. 'हासं परियाणइ से निग्गंथे' ले साधु स्यने सारी रात नये छे. अर्थात् प्रशाथी श्यना ४१ परिणामने જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પ્રજ્ઞાથી હાસ્યનું પ્રત્યાખ્યાન કરે છે, અર્થાત્ હાસ્યના કટુ પરિણામ કલહાદિને જાણીને હાસ્ય (મશ્કરી) નો ત્યાગ કરે છે. એજ સાચા નિગ્રંથ જૈન સાધુ उपाय छे. 'तम्हा णो य हासणए सिया' तेथील साधुसे हाय (१९२१) ४२वी नही. थेट न भुनी । ५५५ ०५ति साथै iसी भरी ४२ नही, भ3-केवली वृया आयाणमेय' ज्ञानी मान् श्रीमहावीर स्वामी ४३ छ , मा मत है। સાધુએ હસી મશ્કરી કરવી તે આદાન અર્થાત્ કર્મબંધનું કારણ મનાય છે. કેમ કે'हासपत्ते हासी समावइत्ता मोसं वयणाए' हास्यने प्रात ४२वावाणा मेट सी भ२५॥ કરવાવાળા સાધુ હાસ્ય યુક્ત થઈને એટલે કે હસીને મશ્કરીમાં અસત્ય વચન બોલે છે,
श्री सागसूत्र :४