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________________ ११२० आचारांगसूत्र से निग्गंथे' लोभं यः परिजानाति - लोभस्यकटु परिणामं ज्ञप्रज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानप्रज्ञया प्रत्याख्यानं परित्यागं करोति स निर्ग्रन्यः साधुरिति भावः, अतएव 'नो य लोभणए सियत्ति' न च साधुः लोभनः लोभशीलः स्यात् भवेद् इति 'तच्चा भावणा' तृतीया भावना - द्वितीय महाव्रतस्य इयम् उक्तरूपा तृतीया भावना अवगन्तव्या, सम्प्रति तस्यैव द्वितीयमहाव्रतस्य चतुर्थी भावनां प्ररूपयितुमाह- 'अहावरा चउत्था भावणा' अथ तृतीयभावना प्ररूपणानन्तरम् अपरा - अन्या चतुर्थी भावना प्ररूप्यते - 'भयं परियाणइ से निग्गंथे ' भयं परिजानाति - ये भयस्य कटुपरिणाम ज्ञप्रज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानप्रज्ञथा प्रत्याख्यानं को प्राप्त करनेवाला साधु लोभी होकर मृषा वचन याने मिथ्याभाषण करता है इसलिये 'तम्हा लोभं परियाणई' जो साधु लोभ को अच्छी तरह जानता है याने ज्ञप्रज्ञा से लोभ के कटु परिणाम को जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से लोभ का प्रत्याख्यान करता है अर्थात् लोभ का परित्याग करता है 'से निग्गंथे' वही निर्ग्रन्थ सच्चा जैन साधु समझा जाता हैं 'नोय लोभगए सियत्ति' इसलिये जैन साधु मुनि महात्मा को लोभ शील नहीं होना चाहिये याने जैन साधु को लोभ नहीं करना चाहिये इस प्रकार उपर्युक्त रोति से द्वितीय मृषावाद विरमण रूप महाव्रत की 'तच्चा भावणा' यह तीसरी भावना समझनी चाहिये, एतावता साधु को लोभ नहीं करना चाहिये । अब उसी द्वितीय मृषावाद विरमण रूप महाव्रत की चतुर्थी भावना का निरूपण करने के लिये कहते हैं 'अहावरा चउत्था भावणा- 'भय परियाणड़, से निग्गंथे' अथ तृतीया भावना के निरूपण करने के बाद अब अपरा अन्या चतुर्थी भावना का प्ररूपण करते हैं जो साघु भय के कटु परिणाम ( खराब फल ) को प्राप्त थवावाजा साधु बोली थाने 'मोसं वयणाए' भूषावयन अर्थात् मिथ्या भाषणु रे छे. अर्थात् हुं छे. 'तम्हा लोभं परियाणा से निम्गंथे' तेथी ने साधु बोलने सारी राते સમજે છે, એટલે કે નપજ્ઞાથી લેણના કટુ પરિણામને જણીને પ્રાયાખ્યાન પ્રજ્ઞાથી લેાભનુ’ પ્રત્યાખ્યાન કરે છે. એટલે કે લેભના ત્યાગ કરે છે એજ સાચા નિન્ય સાધુ કહેવાય छे. तेथी छैन साधुखे 'नो य लोभणए सियत्ति तच्चा भावणा' बोलशील थवु नहीं अर्थात् જૈન સાધુએ લાભ કરવા નહી. આ પ્રમાણે ઉપરોક્ત પ્રકારથી બીજા મૃષાવાદ વિરમણુરૂપ મહાવ્રતની આ ત્રીજી ભાવના સમજવી એટલા માટે સાધુએ લેભને હંમેશાં ત્યાગ કરવા. હવે એજ બીજા મૃષાવાદ વિરમણરૂપ મહાવ્રતની ચેાથી ભાવનાનું નિરૂપણુ કહેવામાં यावे छे, 'अहावरा चउत्था भावणा' त्री भावनानु नि३यण पुरीने हुवे अन्य थोथी भावनानु निश्णु रवामां आवे छे, - 'भ' परियाणई' ? साधु लयना उटु परिशाभने નપ્રજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પ્રજ્ઞાથી પ્રત્યાખ્યાન કરે છે અર્થાત્ ભયને ત્યાગ કરે છે. 'से नि गं' निर्थन्य साया साधु छे. अथवा साया साधु हेवाय हे. 'तम्हा नो શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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