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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १० अ. १५ भावनाध्ययनम् . सम्प्रति तृतीयां भावनां प्ररूपयितुमाह-'अहावरा तच्चा भावणा' अथ-द्वितीयभावना निरूपणानन्तरम् अपरा-अन्या तृतीया भावना प्ररूप्यते-'लोभं परियाणा से निग्गथे ये लोभं परिजानाति ज्ञप्रज्ञया लोभस्य परिणाम ज्ञाखा प्रत्याख्यानप्रज्ञया प्रत्याख्यानं परित्याग करोति स निर्ग्रन्थः साधुरित्यर्थः 'नो य लोभणए' सिया' न च साधुः लोभन:-लोभशील: स्यात्-भवेत्, तथाहि 'कालीबूया-आयाण मेयं' केवली-केवलज्ञानी भगवान् तीर्थकद् ब्रयाद्-आह-आदानम् - कर्मबन्धकारणम् एतत्-साधो: लोभशीलत्वं कर्मबन्धकारणं भवतीति भावः, तत्र हेतुमाह-'लोभपत्ते लोभी समावहत्ता मोसं वयणाए' मनोऽभिलषित वस्तनि लोभप्राप्तः साधुः लोभी भूत्वा मृषावचनं समापयेत करोतीति भावः तस्मात् 'लोभं परियाणइ निर्ग्रन्थ जैन साधु कहला सकता है इसलिये 'नय कोहणे सियत्ति' जैन साधु को क्रोधशील नहीं होना चाहिये इस प्रकार 'दुच्चा भावणा' द्वितीय मृषावाद विरमण रूप महावत की उपर्युक्त रूप दूसरी भावना समझनी चाहिये। ___अब उसी द्वितीय मृषावाद विरमण रूप महावत की तीसरी भावना को बतलाने के लिये कहते हैं-'अहावरा तच्चा भावणा-लोभं परियाणइ से निग्गंथे अथ-द्वितीय भावना का निरूपण करने के बाद अब तीसरी भावना का निरूपण करते हैं कि-जो साधु लोभ को अच्छी तरह जानता है, याने ज्ञप्रज्ञा से लोभ के परिणाम (बुरा फल) को जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से लोभ का प्रत्याख्यान करता है याने लोभ का परित्याग करता है वही निर्ग्रन्थ सच्चा जैन साधु हो सकता है इसलिये जैन साधु को 'नो य लोभणए सिया' लोभशील नहीं होना चाहिये अर्थात् जैन मुनि महात्मा को लोभ नहीं करना चाहिये क्योकि 'केवली. बूया' केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी कहते हैं कि-यह अर्थात जैन साधु को लोभशील होना याने लोभ करना 'आयाणमेयं' आदान-कर्मबन्धनका कारण माना जाता है क्योंकि 'लोहपत्ते लोभी समावइत्ता मोसं वयणाए' लोभ મહાવની ઉપરોક્ત પ્રકારની બીજી ભાવના સમજવી. - હવે એજ બીજા મુષાવાદ વિરમણરૂપ મહાવ્રતની ત્રીજી ભાવના બતાવવા માટે स्त्र४२ ४ छ.-'अहावरा तच्चा भावणा' भी भावनानु नि३५ ४शन हवे श्री भावनानु नि३५५५ ४२वामां आवे छे. 'लोमं परियाणइ' रे साधु सोमने सारी रीते | છે. અર્થાત જ્ઞપ્રજ્ઞાથી લેભના ખરાબ પરિણામને જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પ્રજ્ઞાથી તેમનું प्रत्याज्यान ४२ छे थेट, सामने त्या ४२ छ ‘से निग्गंथे' से साया न साधु उपाय छे. तेथी साधुये 'नो य लोभणए सिया' वोलशाल नही अर्थात जैन मुनिये सोम ४२३। नही भ3-'केवलीबूया आयाणमेयं' नी वान् श्रीमहावीर स्वामी કહે છે કે–આ અર્થાત્ જૈન સાધુએ લેભશીલ થવું અર્થાત્ લભ કરો તે આદાન मर्थात् मम धनु २९ भानामां आवे छे. भ'लोहपत्ते लोभी समाइत्ता' वामन श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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