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________________ १११८ आचारोगसूत्रे प्रज्ञया प्रत्याख्यानं परित्यागं करोति स निर्ग्रन्थः साधुरुच्यते 'नो कोहणे सिया' नो साधुः क्रोधनः क्रोधशीलः स्यात्-निर्ग्रन्थः क्रोधशीलो न भवेदित्यर्थः, तथाहि केवलीबूयाआयाणमेय' केवली-केवलज्ञानी भगवान् तीर्थकृद् ब्रूयाद्-आह, आदानम्-कर्मबन्धकारणम् एतत-साधोः क्रोधशीलत्वम् कर्मबन्धकारणं भवतीति भावः, तत्र युक्तिमाह-'कोहप्पत्ते कोहत्तं समावइत्ता मोसं वयणाए' क्रीधं प्राप्तः साधुः क्रोधत्वं समापद्य प्राप्य मृषावचनं वदति, तस्मात 'कोहं परियाणइ से निग्गंथे' यः क्रोधं परिजानाति-क्रोधस्य कटुपरिणामं ज्ञप्रज्ञया. ज्ञात्वा प्रत्याख्यानप्रज्ञया प्रत्याख्यानं करोति स निर्ग्रन्थः साधुरित्यर्थः, तस्मात 'न य कोहणे पियत्ति' न च साधुः क्रोधमः-क्रोधशीलः स्यात्-भवेदिति 'दुच्चा भावणा' द्वितीया भावना-द्वितीयमहावतस्य मृषावादविरमणरूपस्य उपर्युक्तरूपा द्वितीया भावना अवगन्तव्या। भावना के निरूपण करने के बाद अब अपरा अन्या दूसरी भावना का प्ररूपण करते हैं कि-जो साधु क्रोध को अच्छी तरह से जानता है अर्थात् ज्ञप्रज्ञा से क्रोध के कटु (धुरा) परिणाम को जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से प्रत्याख्यान याने क्रोध का परित्याग करता है वही वास्तव में सच्चा निग्रंथ जैन साधु कहला सकता है । 'णो कोहणे सिया' इसलिये साधु को क्रोध नहीं होना चाहिये अर्थात् निर्ग्रन्थ जैन मुनि महात्मा को क्रोधशील नहीं होना चाहिये, क्योंकि'केवलीबूया' केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी कहते हैं कि यह अर्थात् जैन साधु निर्ग्रन्थ को क्रोध करना 'आयागमेयं' आदान-याने कर्मबन्ध का कारण माना जाता है क्योंकि-'कोहपत्ते कोहत्तं समावइत्ता' क्रोध करनेवाला साधु क्रोध को प्राप्त कर 'मोसं वयणाए' मृषा भाषण करता है अर्थात् क्रोधावस्था में साधु मिथ्या भाषण करते हैं 'तम्हा कोहं परियाणा से निग्गथे इसलिये जो साधु क्रोध को अच्छी तरह जानता है याने क्रोध के कटु परिणाम (बुरा नतीजा) को ज्ञप्रज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से क्रोध को छोड़ देता है वही सच्चा પ્રજ્ઞાથી ક્રોધના કટુ પરિણામને જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પ્રજ્ઞાથી પ્રત્યાખ્યાન અર્થાત્ ક્રોધને त्याग ४२ छ, ते पस्त शेते साया नियन मुनि उपाय छे. तेथी ‘णो कोहणे સિવ સાધુએ ક્રોધી થવું નહીં. અર્થાત નિર્ગસ્થ જૈન સાધુએ ક્રોધી થવું નહીં. કેમ -'केवलीबूया आयाणमेयं वणशानी लान् श्रीमहावीर स्वामी युछे ४-मा से કે જૈન સાધુ નિર્ગથે ક્રોધ કરે એ આદાન અર્થાત્ કર્મબંધનું કારણ માનવામાં આવે छ. भ3-'कोहप्पते कोहत्तं समावइत्ता मोसं वयणाए' प ४२वावा साधु डोधन १० ७ भूषा मा५५५ ४२ 2.-'तम्हा कोहं परियाणा से निग्गंथे' तथा रे साधु ओपन सारी રીતે સમજે છે. અર્થાત ક્રોધના કટુ પરિણામને જ્ઞપ્રજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પ્રજ્ઞાથી धना त्यास ४२४. से साधु सान्या नियं-थ छे. तेथी "नय कोहणे सियत्ति दुच्चा भावणा' जैन साधुमेहोष शास थ नही. प्र. भील भूषा विभय ३५ શ્રી આચારાંગ સૂત્રઃ ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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