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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ स्. ९ अ. १५ भावनाध्ययनम् ज्ञानप्रभावेण सर्वपदार्थान् सर्वाभिप्रायांश्च अवगच्छन् विहरति-विचरति 'जणं दिवसं सम. णस्स भगवो महावीरस्स' यस्मिन् खलु दिवसे श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'निव्याणे कसिणे जाव समुप्पन्ने' निर्वाणे-निर्मले' कृत्ने-सम्पूर्णे-परिपूर्णे यावत्-प्रतिपूर्णे अव्या हते निरावरणे अनन्ते अनुत्तरे केवलज्ञानदर्शने समुत्पन्ने-समजायेताम् 'तण्णं दिवसं' तस्मिन् खलु दिवसे 'भत्रणवइवाणमंतरजोइसियविमरणवासिदेवेहिय' भवनपति- वानव्यन्तरज्योतिषिक विमानवासि वैमानिकदेवैश्च 'देवी हिय' देवीभिश्च 'उवयं ते हिं' उत्पतदभिः-उत्प तनं कुर्वद्भिः सुमेरौ पर्वते आरोहद्भिः 'जाव उपिजलगभूए याविहुत्था' यावद्-अवपत । अब जिस समय में भगवान् श्री महावीर स्वामी को परम निर्मल केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ उस समय में एक अत्यन्त महान् दिव्य देवप्रकाश और देव कलकल भी उत्पन्न हुआ यह बतलाते हैं-'जणगं दिवसं समणस्स भगवओ महावीरस्स निवाणे कमिणे जाव समुप्पन्ने' जिस दिन में श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामी को निर्वाण याने निर्दोष अर्थात् निर्मल एवं कृत्स्न याने सम्पूर्ण अर्थात् परिपूर्ण एवं यावत् अव्याहत याने व्या. घात रहित अर्थात् अकुण्ठित और निरावरण याने आवरण रहित एवं अनन्त अर्थातू अन्त रहित एवं अनुत्तर सर्वोत्तम याने सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवल दर्शन समुत्पन्न हुआ 'तन्नं दिवसं भवणवई' उस दिन में भवनपति 'वाणमंतरजोइसिय' वानव्यंतर-ज्योतिषिक और 'विमाणवासि देवे. हिय देवीहिय' विमान वासी वैमानिक देवों और देवियों ने 'उवयंतेहिं जाव' उत्पतन करते हुए याने सुमेरु पर्वत पर आरोहण करते हुए अर्थात् चढते हुए तथा यावद् भूभाग पर अवतरण करते हुए याने उतरते हुए याने सुमेरु पहाड़ पर चढते समय और भूभाग पर उतरते समय 'उपिजलगभूए यावि हुत्था' एक અર્થાત્ વિહાર કરવા લાગ્યા. હવે જે સમયે ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીને કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ઉત્પન્ન થયું એ સમયે એક મોટો દિવ્ય પ્રકાશ અને દેવ કલકલ પણ થયે તેનું સૂત્રકાર કથન કરે छे-'जण्णं दिवसं समणस्स भगवओ महावीरस्स' हिवसे श्रम मगवान् महावीर स्वाभीर 'निव्वाणे कसिणे' नि! अर्थात निषि मेटले नि भने न त सपू मेटले , ५२५ तथा 'जाव समुप्पन्ने' यावत् प्रतिपू माने २५व्यात अर्थातू व्याधात વિનાનું અર્થાત્ અંકુઠિત અને નિરાવરણ અર્થાત્ આવરણ વિનાનું તથા અનંત એટલે કે मतनु तथा अनुत्तर अर्थात् सर्वोत्तम अवज्ञान भने उशन उत्पन्न यु 'तन्नं दिवसं' हिवसे 'भवणवइ वाणमंतर-जोइसियविमाणवासि' मनपति, पानव्य-तर न्याति०४ विमानवासी वैमानि: 'देवेहिय देवीहिय' हेवे। मने वियो ‘उवयंतेहिं जाव' पतन કરતાં અર્થાત્ સુમેરૂ પર્વત પર ચઢતી વખતે અને સુમેરુપર્વત પરથી જમીન પર ઉતરતી श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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