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________________ आचारांगसूत्रे 'आयावेमाणस्स' आतापयतः-आतापनां कुर्वतः 'छटेणं भत्तेणं अपाणएणं' षष्ठेन भक्तेनउपवासद्वयेन अपानकेन-पानरहितेन 'सुकाज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स' शुक्लध्यानान्तरेशुक्लध्याने वर्तमानस्य-आरूढस्य भगवतो महावीरस्वामिनः 'निव्वाणे कसिणे पडिपुन्ने' निर्वाणे-निर्दोषे कृत्स्ने-सम्पूर्णे-परिपूर्णार्थग्राहके प्रतिपूर्णे 'अव्याहए निरावरणे' अव्याहतेव्याघातरहिते अकुण्ठिते इत्यर्थः निरावरणे-आवरणरहिते 'अणंते अणुत्तरे' अनन्ते, अनुत्तरे सर्वप्रधाने 'केवलवर नाणदसणे समुप्पन्ने' केवलवरज्ञानदर्शने-सर्वश्रेष्ठ केवलज्ञानं केवल. दर्शनञ्च समुत्पन्ने संजाते, भगवतो महावीरस्य उपयुक्तरूपं केवलज्ञानं केवलदर्शनञ्च समजायत इति भावः । अथ भगवतो श्री महावीरस्वामिनः समुत्पन्न केवलज्ञानदर्शनस्य सामर्थ लगाकर 'आयावणाए आयावेमाणस्स' आतापना से आतापना करते हुए 'छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं' तथा षष्ठ भक्त अर्थात अपानक-जलका पान से भी रहित उपवास द्वयात्मक षष्ठ भक्त नामके व्रत करते हुए और 'सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स' शुक्लध्यानमें वर्तमान अर्थात् सुक्लध्यान में निमग्न भगवान् श्रीमहावीर स्वामी को 'निव्वाणे कसिणे पडिपुन्ने' निर्वाण निर्दोष और कृत्स्न अर्थात संपूर्ण याने परिपूर्ण अर्थकेग्राहक और 'अव्वाहए' अव्याहत याने व्या. घातरहित (अकुण्ठित) एवं 'निरावरणे' निरावरण-आवरण रहित तथा 'अणंते' अनंत अंत रहित और 'अणुत्तरे' अनुत्तर-सर्व प्रधान 'केवल वरनाणदंसणे समुप्पन्ने केवल ज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुए एतावता भगवान् श्रीमहावोर स्वामी को उत्तरीति से तपश्चर्या व्रत ध्यान वगैरह में अत्यन्त लीन होने पर निर्दोष एवं सभी अर्थो का ग्राहक तथा अकुण्ठित आवरण रहित सर्वश्रेष्ठ केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन उत्पन्न हुआ, उस से भगवन् केवलज्ञानी हो गये। __ अब भगवान् श्री महावीर स्वामी के समुत्पन्न केवलज्ञान तथा केवल दर्शन मतेश मेसीन ॥य होवाय छे से प्रमाणे मासन मावीने 'आयावणाए आया. वेमाणस्स' सूर्य तापमां माता५ना ४२di ४२त 'छटेणं भत्तेणं' ५४ मत अर्थात् 'अपाणएणं' અપાનક એટલે કે જલપાનથી રહિત ઉપવાસ દ્વયાત્મક ષષ્ઠભક્ત નામનું વ્રત કરતાં અને 'सुक्कझाणंतरियार वट्टमाणस्स' शुस ध्यानमा वतमान मेटले शुस ध्यानमा निम श्री महावीर स्वामीने 'निव्वाणे कसिणे पडिपुण्णे'निर्वा-निर्दोष मने न मर्थात सण मने ५रि मनाई भने 'अव्वाहए निरावरणे अणंते' २४०यात मेटसे 3 व्याघातरहित (मति ) तथा निरा१२९] मर्थात् १२॥ विनानु तथा मनत मत 4२नु 'अणुत्तरे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे' २५नुत्तर-प्रधान विज्ञान भने उ49 64-न यु. એટલે કે વીતરાગ ભગવાન શ્રીમહાવીરસ્વામીને ઉકત પ્રકારથી તપશ્ચર્યા વ્રત ધ્યાન વિગેરેમાં અત્યન્ત લીન હતા ત્યારે નિર્દોષ અને બધાજ અને ગ્રાહક અને અકુંઠિત આવરણ વિનાનું સર્વ શ્રેષ્ઠ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ઉત્પન્ન થયું તેથી ભગવાન કેવળજ્ઞાની કહેવાયા. श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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