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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. ८ अ. १५ भावनाध्ययनम् उत्पतनं कुर्वन्ति 'उडू उप्पइत्ता' ऊर्ध्वम्-उच्चैः, उत्पत्य-उत्पतनं कृखा 'ताए उकिटाए सिग्धाए चवलाए तुरियाए' तया-कयापि विचक्षणया उत्कृष्टया-लोकोत्तरया शीघ्रया चपलया त्वरितया-अतिवेगवत्या 'दिव्याए देवगईए' दिव्यया देवगत्या 'अहेणं ओवयमाणा' अधः खलु-नीचैः अवपतन्तः आपतन्तः-भूमौ अधोभागे अवतरन्त इत्यर्थः 'तिरिएणं असंखिज्जाई दीवसमुद्दाई' तिर्यक् खलु-तिर्यग्लोके स्थितान् असंख्येयान्-अपरिगण्यान् द्वीप समुद्रान 'वीइक्कममाणा' व्यतिक्रामन्तः-उल्लङ्घयन्तः ‘वीइक्कममाणा' व्यतिक्रमन्तः पुनः पुनरुल्लङ्घयन्तः 'जेणेव जंबुद्दी के दीवे' येनैव-यस्मिन्नेव भागे जम्बूद्वीपो द्वीप: आसीदितिशेषः 'तेणेव उपागच्छति' तेनैव-तस्मिन्नेव भागे इत्यर्थः उपागच्छन्ति आगच्छतीतिभावः आगता इति तदर्थः 'उवागच्छित्ता' उपागत्य-उपागम्य 'जेणेव उत्तरछोटे पुद्गल को परिग्रहण कर-‘उड़े उप्पयंति'- अर्ध्व अर्थात् ऊपर की ओर याने उर्ध्वलोक के तरफ उत्पतन करते हैं याने उडकर उर्ध्वलोक की ओर जाते हैं और-'उ8 उप्पइत्ता'-उर्ध्वलोक की ओर उत्पतन कर 'ताए उक्किट्ठाए' कोइ विलक्षण अवर्णनीय उत्कृष्ट अर्थात् लोकोत्तर-'सिग्घाए चवलाए'- शीघ्र अत्यंत चपल अर्थात् अत्यंत चंचल और-'तुरियाए' अत्यंत वेगशाली 'दिव्वाए देवगईए' दिव्य देवगति से 'अहेणं ओवयमाणा' नीचे को और अवपतन करते हुए याने भूमि के नीचे का भागमें उतरते हए-'तिरिएणं' तिर्यक लोकमें स्थित अर्थात् तिर्यक लोकमें विराजमान-'असंखिज्जाइं दीवसमुद्दाई' असंख्येय याने नहीं गिनने योग्य द्वीप समुद्रों को-'वीइकम्प्रमाणा वीइक्कममाणा' लांघते हुए याने बार बार द्वीपसमुद्रों का उल्लंघन करते हुए-'जेणेव जंबूद्दीवेदीवे तेणेव उवाग. च्छंति' जिसी तरफ याने जिसी पृथिवो के एक भाग में या जिसी दिशा तरफ जम्बुद्धीप (एशिया) नाम का द्वीप था, उसी तरफ आते हैं अर्थात् आगये और 'तेणेव उवागच्छित्ता' उस तरफ वे भवनपति वानव्यन्तर वैमानिक देवगण તરફ એટલે કે ઉર્વ લેક તરફ ઉત્પતન કરે છે. અર્થાત્ ઉડીને ઉર્વલેક તરફ तय छे. मने 'उडूढ उप्पइत्ता' Gafats त२३९डी 'ताए उक्किदाए सिग्याए चवलाए' કેઈ વિલક્ષણ અવર્ણનીય ઉત્કૃષ્ટ અર્થાત્ લેકોત્તર શીધ્ર અત્યંત ચપળ અને 'तुरियाए दिव्वाए देवगईए' सत्यत शी हव्य तिथी 'अहेणं ओवयमाणा' नीयन। त२५ १५तन ४२di ४२di uथात् भूमिना नीयना मात२६ अतरता तिरिएणं असंखिज्जाई' तियामा भिमान मसध्यात अर्थात् ॥ न य तटवा 'दीवसमुद्दाई बीइक्कम. माणा, विक्कममाणा' द्वीप समुतनु धन रीन अर्थात् पार वा द्वीपसमुद्रोनुं अपन ४शने 'जेणेव जंबूद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छंति' २ त२६ अर्थात् ५ । रे मेलामा અર્થાત્ જે દિશા તરફ જંબુદ્વીપ (એશિયા) નામને દ્વીપ હવે એ તરફ આવે છે. અર્થાત भावी गया. अने 'तेणेव उवागच्छित्त।' त्यां मापान अर्थात् त सपनपति, पान०य २ आ० १३२ શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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