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________________ [३८] विषय पृष्ठाङ्क संयम लेकर गृहस्थों के आश्रित होकर रहने लगता है वह भी गृहस्थ-जैसा ही है ॥ ८९-९२ ६ तृतीय सूत्र का अवतरण, तृतीय सूत्र और छाया। ७ तीर्थंकरोंने यह सब अपने केवलज्ञान से प्रत्यक्ष करके कहा है। इस तीर्थङ्करोक्त प्रवचनमें व्यवस्थित मुनि, तीर्थकर के आज्ञानुसार चलनेवाला, पण्डित और स्वजन तथा विषय संबन्धी स्नेहरहित होता है। पूर्व और अपर रात्रिमें प्रतिक्रमण स्वाध्याय आदि सदनुष्ठानमें प्रयत्नशील होता है; शील के स्वरूप को जानकर उसका पालन करता है; शील के आचरण और अनाचरण के फलको सुनकर वह कामरहित और झंझारहित हो जाता है। भव्यों को इन ज्ञानावरणीयादिकर्मरूप आन्तरिक शत्रुओं से ही युद्ध करना चाहिये, बाह्य शत्रुओं से युद्ध करने से क्या लाभ ? ९३-१०० ८ चतुर्थ सूत्रका अवतरण, चतुर्थ सूत्र और छाया। ९ परीषह आदिके साथ युद्ध करने योग्य यह औदारिक शरीर दुर्लभ है । इस संसारमें कुशल तीर्थङ्करादिकोंने ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञाका विवेक कहा है । धर्मसे च्युत अज्ञानी जीव, गर्भादिमें निवासजनित दुःखका अनुभव करता है । यह विषय, आहेत प्रवचनमें ही कहा गया है। धर्मसे च्युत जीव रूप आदिमें और हिंसा आदिमें प्रवृत्ति करता है । जो मुनि होता है वह धर्मपथमें सतत प्रवृत्त, आस्रवरहित और रत्नत्रयके अभ्यासी होता है । वह असंयत लोगोंको जानता है। इस लिये वह ज्ञनावरणीयादि कर्मोंको और उनके कारणों को अच्छी तरह ज्ञपरिज्ञासे जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञासे परित्याग करता है, और वह हिंसासे सर्वथा विरत होता है, संयमी होता है, धृष्टता नहीं करता है, सभीके सुखदुःखके जाननेवाला होता है, स्थपरके कल्याणाभिलाषी होता है, मोक्षमार्गमें ही श्री. मायाग सूत्र : 3
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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