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________________ विषय [३७] रूप बन्ध और उन कर्मों से पृथक होनारूप, प्रमोक्ष, ये दोनों अन्तःकरणमें ही हैं। आरम्भपरिग्रह या अप्रशस्त भाव से रहित साधु, सभी प्रकारों के परीषहों को यावज्जीवन सहे । असंयतों को तीर्थंकरोपदिष्ट मार्ग से बहिर्वर्ती समझो। तीर्थंकरोपदिष्ट मार्ग के अन्तर्वर्त्ती मुनि अप्रमत्त होकर विचरे । भगवत्प्ररूपित इस चारित्र का परिपालन, हे शिष्य ! तुम अच्छी तरह करो । उद्दश समाप्ति । ॥ इति द्वितीय उद्देश || * ॥ अथ तृतीय उद्देश ॥ १ द्वितीय उद्देश के साथ तृतीय उद्देश का संबन्ध कथन । २ प्रथम सूत्रका अवतरण, प्रथम सूत्र और छाया । ३ जो कोई इस लोक में अपरिग्रही होते हैं, वे संयमीजन, अल्प स्थूल आदि वस्तुओं में ममत्व के अभाव से ही अपरिग्रही होते हैं। मेधावी मुनि तीर्थंकर आदियों की वाणी सुनकर और उसीको धर्म समझकर, तदनुसार आचरण कर के अपरिग्रही हो जाता है इस मार्ग में मैंने कर्मपरम्परा दूर करने का जैसा सरल उपाय बतलाया है वैसा अन्यमार्ग में नहीं है । इसलिये इस मार्ग में स्थित मुनि अपनी शक्ति को न छिपावे | શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩ ४ द्वितीयसूत्र का अवतरण द्वितीयसूत्र और छाया । ५ तीन प्रकार के लोग होते हैं - कोई संयम ग्रहण करता है और मरणपर्यन्त पूर्णतत्परता के साथ उसे निभाता है; कोई संयम ग्रहण करता है और परिषहोपसर्ग से बाधित हो उसे छोड देता है; और कोई न संयम लेता हैन उसे छोड़ता है । जो पृष्ठाङ्क ७६-८१ ८२ ८२ ८३-८८ ८८
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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